पर्यावरण : खतरे के बादल उमड़ रहे हैं

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बिगड़ते पर्यावरण से अस्त-व्यस्त होते पारिस्थितिकी तंत्र से आने वाले सालों में भीषण परिणाम देखने को मिलेंगे। विश्व की वन्य प्रजातियों के संरक्षण के लिए काम करने वाली स्विट्जरलैंड के एक संस्था इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IEUSN) ने वन्य प्राणियों और पौधों की 12 हजार से भी अधिक प्रजातियों की सूची जारी की है जिनके आने वाले कुछ सालो में लुप्त हो जाने का खतरा है, यह संस्था सालाना इस प्रकार की सूची जारी करती है। इस वर्ष की सूची में 2000 और प्रजातियों को इसमें शामिल कर लिया गया है|

डराने वाली बात यह है कि शोध की रिपोर्ट में कुछ द्वीपों पर सारा पर्यावरण ही खतरे में बताया गया है। विश्व में हो रहे जलवायु परिवर्तन से विशेष रूप से प्रभावित उन द्वीपों के पौधों और प्राणी हैं, जो बिलकुल निर्जन हैं।

अब तक एकत्र किए गए आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले 500 सालों में वनस्पति और प्राणियों की 762 से अधिक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं। ध्यान देने वाली बात है कि अभी तक सिर्फ ज्ञात प्रजातियों में से ही 12,259 प्रजातियों को खतरे में घोषित किया गया है। धरती के फेफड़े कहे जाने वाले ब्राजील के वर्षावनों में आज भी हजारों ऐसी प्रजातियाँ हैं जिनकी पहचान की जाना अभी बाकी है।

कुछ जगहों पर बंदरों की कई प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर आ गई हैं। दक्षिण अमेरिका में बंदरों की कुछ प्रजातियों को लगभग लुप्तप्राय: ही मान लिया गया है। मैक्सिको के 'ब्लैक हाउलर' बंदर को 'विलुप्ति के कगार' पर मान लिया गया है। इस रेडलिस्ट में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और आबादी वाले देश इंडोनेशिया, भारत, ब्राजील, चीन और पेरू की प्रजातियों की संख्या सबसे ज्यादा है। मानव-सी संरचना वाले इन जीवों का लुप्त होना एक बड़ी चेतावनी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

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जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के निर्जनतम स्थान के नाम से मशहूर त्रिस्तान डा कुन्हा और फॉकलैंड द्वीपों पर स्थानीय प्रजातियाँ बड़ी तेजी से लुप्त होती जा रही हैं। हवाई द्वीप पर पौधों की 125 प्रजातियाँ खतरे में हैं। एशेंसन नाम के द्वीप पर कभी प्रचुरता से पाई जाने वाली पौधों की चार प्रजातियाँ आज लुप्त हो चुकी हैं।

इसी तरह इक्वाडोर, मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्राजील और श्रीलंका में पौधों की प्रजातियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। इसमें ध्यान देने वाली बात है कि कई वन्य प्राणी और वनस्पति बाहरी प्रजातियों के हमले के कारण गायब हो रहीं हैं। ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च के आँकड़े बताते हैं कि बढ़ती आबादी के कारण अमेजन के जंगल के 25,000 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक हिस्से के पेड़ मनुष्य के रहने और खेती के लिए पिछले एक ही साल में काट दिए गए हैं।

औद्योगिकरण और वन कटने से हो रही ग्लोबल वार्मिंग बर्फ पिघलने के मुख्य कारणों में से एक है। बर्फ की ऊपरी तह सूर्य की रोशनी को परावर्तित करती है और इस क्रिया में काफी बर्फ पिघलती है। जलवायु परिवर्तन के कारण तेज हवाएँ चलने से बड़ी मात्रा में पुरानी बर्फ के टुकड़े अपने मूल क्षेत्रों से बहकर पश्चिमी क्षेत्र जो कि अपेक्षाकृत गर्म है, की ओर जा रहे हैं। फिलहाल अंटार्कटिका की बर्फ पिघल रही है जिसका सीधा दुष्प्रभाव वहाँ की स्थानीय प्रजातियों पर पड़ रहा है। पेंग्विनों की संख्या में भी आवास घटने की वजह से कमी देखी गई है।

मछलियों की कई प्रजातियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। अवैध शिकार के चलते दुनियाभर में शार्क मछलियों की संख्या भी तेजी से घट रही है। दक्षिण अमेरिकी नदियों में प्रजनन करने वाली कई मछलियाँ प्रदूषण के कारण पर्याप्त संख्या में अंडे नही दे पा रही हैं, जिस वजह से भी उनकी संख्या में गिरावट आ रही है। एशिया में मेकांग बेसिन की कैटफिश, यूरोप और अफ्रीका में स्वच्छ जल में रहने वाली मछलियों की कई प्रजातियाँ भी इस बार रेड लिस्ट में आ गई हैं।

विश्व में पहली बार ध्रुवीय भालू (पोलर बियर) और दरियाई घोडे़ को लुप्त हो रहे जानवरों की सूची में शामिल किया गया है। इतना ही नहीं ध्रुवीय भालू के बारे में इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले 50 से 100 वर्षों में उनके लुप्त हो जाने की आशंका है। हैरानी की बात है कि यह सब तब हो रहा है जब जीव-जंतुओं को बचाने के लिए बनी हुई अनेक समितियों/संस्थाओं द्वारा समय-समय पर चेतावनी दी जा रही है पर लालफीताशाही, भ्रष्टाचार के चलते रेडलिस्ट में आने वाली प्रजातियों की संख्या में हर साल नई प्रजातियाँ जुड़ती जा रही हैं।

अफ्रीका में अकाल, भुखमरी की वजह से अवैध शिकार धड़ल्ले से जारी है। गृहयुद्ध से झुलसे डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में तो दरियाई घोड़ों को माँस के लिए मारा जाता है। पिछले 10 सालों में अफ्रीका के दरियाई घोड़ों की संख्या लगभग 90 प्रतिशत कम हुई है।

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जैव विविधता में लगातार कमी आ रही है और अगर जैव विविधता में इसी प्रकार कमी जारी रही तो यह मानव जाति के लिए एक बड़े खतरे की शुरुआत हो सकती है क्योंकि इन प्रजातियों के लुप्त होने का प्रभाव पूरे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता है।

इसके लुप्त होने के लिए जलवायु परिवर्तन को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इसके साथ ही साथ मनुष्य भी इस विनाश में समान रूप से दोषी है।

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