चौंकाता और रुलाता रहेगा मौसम का मिजाज

पिछले कुछ सालों से मौसम चक्र ने हमें चौंकाने और परेशान करने का जो सिलसिला शुरू किया है, उसके थमने के फिलहाल कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। अतिवृष्टि और अनावृष्टि वैसे तो जब-तब हमारे लिए मुसीबत के रूप में आती-धमकती ही रहती हैं, लेकिन मौसम और खासकर बारिश का बदलता चक्र अब अलग तरह की परेशानियां ला रहा है।
 
पिछले वर्ष की अपर्याप्त मानसूनी बारिश से जो दुश्वारियां पैदा हुई थीं, वे बीते दिनों की बेमौसम बारिश और ओलों की बौछार से और बढ़ गई हैं। किसान को जहां खरीफ फसल की बुवाई के दौरान सूखे ने परेशानी में डाला था वहीं इस बेमौसम बरसात ने उन्हें बुरी तरह तबाह कर दिया। किसानों के समक्ष पैदा हुए इस कुदरती संकट को भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली ने और भी ज्यादा घना कर दिया। कुछ इलाकों में तो अपनी फसल की बर्बादी से हताश होकर कुछ किसानों के आत्महत्या करने की खबरें भी आईं। अब मौसम विभाग ने कहा है कि इस साल भी मानसून के सामान्य से कम होने की आशंका है। 
जून से शुरू होकर सितंबर तक 4 महीनों की बरसात के लिए मौसम विभाग की यह पहली भविष्यवाणी निराश करने वाली है जिसमें औसत से कम महज 93 फीसदी बारिश होने की बात कही गई है। इसकी मुख्य वजह प्रशांत महासागर में 'अल नीनो' प्रभाव की मौजूदगी है। अल नीनो की वजह से प्रशांत महासागर का पानी सामान्य से ज्यादा गर्म हो जाता है जिससे मानसून के बादलों के बनने और भारत की ओर बढ़ने की इनकी गति कमजोर हो जाती है।
 
केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने भी आधिकारिक तौर पर माना है कि इस बार फिर मानसून की फुहारों पर अल नीनो का ग्रहण पड़ेगा और बरसात निराश करने वाली होगी। अगर मौसम विभाग का आकलन सटीक रहा, तो हो सकता है कि भारत के मध्य और उत्तर-पूर्वी इलाकों में बारिश सामान्य से कम हो। अगर ऐसा हुआ तो बरसात की कमी वाला यह लगातार दूसरा साल होगा, जो मुसीबतों से जूझते किसानों पर और भारी मुसीबतों का बोझ डाल देगा। 
 
मौसम के बदलते तेवरों के साथ बेमौके बारिश और ओलावृष्टि से तहस-नहस खेती के बाद किसानों की आस इसी मानसून पर टिकी थी, जो अभी से छूटती दिख रही है। लेकिन मामला इतने पर ही खत्म नहीं हो रहा है। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों की मानें तो प्रशांत महासागर का तापक्रम बढ़ने से उत्पन्न होने वाला अल नीनो का दैत्य अगले साल के मानसून तक भी असर डाल सकता है। ऐसी भयंकर आशंकाएं अगर सही साबित हुईं तो इसका असर न केवल किसानों पर बल्कि देश की विशाल आबादी को गहरे जख्मों से भरकर रख देगा। 
 
पिछले साल के कमजोर मानसून की वजह से महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के क्षेत्रों में सूखे की स्थितियां पैदा हो गई थीं जिनका असर अब तक दिखाई देता है। हो सकता है कि अगले साल भी इन्हीं इलाकों में से कुछ पर फिर सूखे की छाया पड़ जाए और किसानों के लिए मुसीबत खड़ी हो जाए। देश की आजादी के 7वें दशक में भी देश के आधे से अधिक किसान मानसून की मेहरबानी पर जिंदा हैं, यह अपने आप में हमारे व्यवस्था तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी है। किसानों की जिंदगी तो खेती पर सीधे-सीधे निर्भर रहती है, लेकिन देश की बाकी आबादी की खुशहाली भी खेती से जुड़ी है। फसल के खराब या कम होने का अंदेशा हो तो महंगाई फिर बढ़ सकती है जिससे रिजर्व बैंक ब्याज दरों को घटाना मुल्तवी कर सकता है और अर्थव्यवस्था के विकास की गति कम हो सकती है। 
 
बेशक जीडीपी यानी हमारे सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा का महज 15 फीसदी बनता है लेकिन देश की आधी से अधिक आबादी का पेट देश के खेत-खलिहानों पर ही पलता है इसलिए किसानों पर राजनीति करने वाले और इन्हें महज वोट बैंक समझने वाले नेताओं को अभी से सावधान हो जाना चाहिए। किसानों की आय घटने से ग्रामीण इलाकों में उपभोक्ता वस्तुओं की खपत घटी है और इसका खराब असर भी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
 
उम्मीद की एक किरण यह है कि निजी संस्थान स्काईनेट ने मानसून के सामान्य रहने का आकलन किया है। हम यह भी उम्मीद कर सकते हैं कि मौसम विभाग का यह आकलन उसके अगले आकलन में गलत साबित हो। ज्यादा विश्वसनीय भविष्यवाणी मौसम विभाग जून में कर पाएगा और तब इस बात का भी ज्यादा साफ अंदाजा लग सकेगा कि अगर बारिश कम हुई, तो कौन-कौन से क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। तब तक अल नीनो का भी प्रभाव बेहतर ढंग से पता चल पाएगा। 
 
फिलहाल मौसम विभाग का कहना है कि अल नीनो के प्रभाव वाले पिछले 14 मानसूनों में से 8 में बारिश कम हुई थी यानी अल नीनो से मानसून कम होने की आशंका 60 प्रतिशत से कुछ कम होती है। फिलहाल 68 प्रतिशत आशंका है कि मानसून सामान्य से कम रहेगा।
 
गणित के नजरिए से 93 फीसदी बारिश को बहुत बुरा नहीं कहा जा सकता, लेकिन मानसून के लिहाज से यह खराब इसलिए माना जाता है, क्योंकि देश के बहुत बड़े हिस्से में सिंचाई की सुविधाएं नहीं है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में, जहां सिंचाई की सुविधाएं अच्छी हैं, एकाध साल बारिश के कम होने से खास फर्क नहीं पड़ता। दरअसल हमारी समस्या मानसून नहीं है, मौसम में उतार-चढ़ाव तो स्वाभाविक बात है। अब भी देश में सिंचाई की सुविधाओं से किसान वंचित हैं। कई इलाके ऐसे भी हैं, जहां भौगोलिक वजहों से अक्सर बारिश कम होती है, जैसे महाराष्ट्र का मराठवाड़ा और विदर्भ। ऐसा नहीं है कि इन इलाकों में पानी का प्रबंधन और सिंचाई का इंतजाम कोई बहुत मुश्किल काम हो, लेकिन कभी भी गंभीरता से इस काम को किया ही नहीं गया इसलिए लगभग सामान्य बारिश होने पर भी कुछ इलाके सूखे रह जाते हैं। अगर देश को मौसम के उतार-चढ़ाव के थपेड़ों से बचाना है, तो बारिश के पानी को सहेजने और लोगों तक पहुंचाने को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा।
 
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने भी एक बार फिर बढ़ते वैश्विक तापमान और उसके संभावित असर को लेकर आगाह किया है। हालांकि इस मसले पर अलग-अलग समय पर हुए वैश्विक सम्मेलनों के अलावा संयुक्त राष्ट्र के स्तर से जितने भी प्रस्ताव पेश किए गए, उनका हासिल किसी से छिपा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की आईपीसीसी यानी जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक 1880 से 2012 के बीच धरती की सतह के औसत तापमान में 0.85 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है, कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन गैस और नाइट्रस ऑक्साइड सबसे उच्च स्तर पर है और पिछले 110 सालों के दौरान दुनियाभर में समुद्र की सतह 19 सेंटीमीटर ऊपर आ चुकी है। इसके अलावा तथ्य यह भी है कि पिछले 1400 सालों में 1983 से 2012 के बीच की अवधि को सबसे गर्म वर्षों के रूप में दर्ज किया गया है। दुनियाभर में पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों के असर भयानक तूफानों से लेकर कई दूसरे रूपों में सामने आ रहे हैं। मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव के साथ अत्यधिक बरसात या सूखा और बर्फ आवरण में कमी आदि कोई संयोग नहीं है, बल्कि विश्व की पारिस्थितिकी में आ रहे खतरनाक बदलावों के सूचक और नतीजे हैं। ऐसे में आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट में दर्ज तथ्यों को ध्यान में रखा जाए तो आने वाले दिनों के संकट का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों और आम लोगों को अतिवृष्टि और अनावृष्टि से उत्पन्न संकट से उबारने के लिए सरकारों को हर मुमकिन कदम उठाने चाहिए, लेकिन साथ ही मौसम की लगातार बदलती चाल जो संदेश दे रही है, उसे भी हमें गंभीरता से समझना चाहिए। मार्च के महीने में देश के इतने बड़े हिस्से में इतनी तेज और इतनी लंबी बारिश कोई सामान्य बात नहीं है। इस बेमौके की बारिश को लेकर जिस पश्चिमी विक्षोभ का हवाला मौसम विभाग ने दिया, उसकी व्यापकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने बंगाल की खाड़ी और अरब सागर यानी देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों से नमी उठाई थी।
 
मौसम की बदलती चाल के लिए जिम्मेदार ऐसे कारक जो संदेश हमें दे रहे हैं, वे काफी गंभीर हैं। इन्हें समझने में जिस तरह की सतर्कता और तत्परता हमें दिखानी चाहिए, वह हम नहीं दिखा पा रहे हैं। वैसे हमारे मौसम विभाग के अफसर अभी तक निष्ठापूर्वक इन संकेतों को पकड़ते रहे हैं और हमें इनके बारे में जानकारी देते रहे हैं। लेकिन यह मामला सामान्य ढंग से आसमान साफ होने, बूंदा-बांदी या भारी बारिश होने या तापमान इतने से उतने डिग्री के बीच रहने के पूर्वानुमान तक सीमित नहीं है।
 
समूचे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी ही उग्र मौसमी घटनाएं दर्ज की गई हैं। अगर ये घटनाएं मौसम के बदलते मिजाज को जाहिर कर रही हैं तो यह तथ्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि यहां के सारे देशों की खेती-बाड़ी, उद्योग-धंधे और रहन-सहन काफी हद तक मौसम पर ही निर्भर करते हैं। इसलिए मौसम के मिजाज में ऐसे बड़े बदलावों को दर्ज कर उनका विश्लेषण करने की जिम्मेदारी अफसरों की नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों की होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो व्यवस्था के मारे किसान और आम लोग कुदरत की मार के शिकार होने के लिए भी अभिशप्त बने रहेंगे।

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