अलविदा दोस्तों--परसों दूर एक जंगल से मेरी एक मित्र चिड़िया आई थी। बहुत दुखी थी। पहले वो मेरे ही पास खड़े हुए एक नीम के पेड़ पर परिवार सहित रहती थी लेकिन पिछले दिनों उस नीम सहित बाकी पेड़ भी 'सड़क दुर्घटना' के शिकार हो गए। तब वो चिड़िया परिवार और अन्य रिश्तेदारों सहित किसी और जंगल में रहने चली गई थी।
मुझे बहुत बुरा लगता था उन सबके जाने के बाद का सूनापन। चिड़िया और उसके बच्चे थे तो रौनक बनी रहती थी। ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यों के घर में भरा-पूरा परिवार होता है। लेकिन आजकल तो सुना है मनुष्यों के परिवार भी टूटने लगे हैं। खैर.. चिड़िया बता रही थी कि उसे भी वहाँ नई जगह भी अच्छा नहीं लगता लेकिन क्या करती जाना जरूरी था... कम से कम वहाँ पेड़ तो हैं लेकिन अब शायद वे जंगल भी मनुष्य के विकास के आड़े आ रहे हैं।
चिड़िया इस बात से भी दुखी थी कि जंगलों की कम होती संख्या और सूखते तालाबों के कारण आजकल उसके विदेशी मित्र भी यहाँ आने से कतराते हैं। पता नहीं आने वाले समय में उनके लिए घर भी बचेगा या नहीं? उसने एक अच्छी खबर भी दी कि, मेरे जिन बीजों को पंछी दूसरी जगहों पर ले गए थे उनसे नई कोंपलें फूटी हैं और मैं अब दादा-नाना बन चुका हूँ।
अभी हम बात ही कर रहे थे कि अचानक मेरे पेट में तेज़ दर्द उठा। मैं घबरा गया। दर्द असहनीय था। अभी तो उम्र भी ऐसी नहीं थी फिर ये दर्द? मैं समझ नहीं पाया, तभी वो चिड़िया कातर स्वर में चीख उठी। दर्द अब और तेज हो गया था और नीचे मेरे पैरों के पास से लोगों के चिल्लाने की आवाज़ भी आ रही थी।
मैं समझा शायद लोग मेरी रक्षा के लिए इकट्ठा हुए हैं। अभी इतना सोचकर दिल को तसल्ली ही दी थी कि अचानक एक और तेज आवाज़ और लगा जैसे किसी ने मेरे पेट में किसी तीखी चीज़ से वार किया। मैंने दर्द की लहर को सहते हुए सिर झुकाकर देखा- ये तो कुछ इंसान थे जो आरी से मेरे तने को काटने की कोशिश में थे। लेकिन क्यों, मैं तो सड़क के नियमों का पालन करते हुए किनारे पर ही खड़ा था?
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मेरा ध्यान पैरों की ओर गया। मेरी एक लंबी और चौड़ी जड़ नई बनने वाली सड़क की बाधा बन रही थी शायद। मैं चिल्लाकर कहना चाह रहा था जड़ों को ऐसे नष्ट मत करो। मुझे किसी और बड़ी जमीन पर ले चलो, मैं वहाँ अपनी जड़ें पसार लूँगा। मेरी हालत देखकर माँ भी रोने लगी थी लेकिन आरी का चलना अब भी नहीं रुका था। आखिरकार माँ ने कसकर पकड़े मेरे हाथ को ढीला छोड़ दिया और तेज़ आवाज़ के साथ मैं जमीन पर आ गिरा।
अपनी अधमुँदी आँखों से मैं लोगों को अपनी शाखाएँ तोड़ते, पत्तियाँ नोचते और फल झपटते देख रहा था। हालाँकि माँ की ये सीख कानों में गूँज रही थी कि मरने के बाद भी लोगों के काम आना। इसलिए मैं अपने आँसू रोके हुए था लेकिन बस एक दुख हो रहा था.. जो लोग इतने सालों से मुझसे फल पा रहे थे, सूखी टहनियाँ ले रहे थे और पूज रहे थे उनकी आँखें भावहीन थीं।
शायद मेरा दुख देखकर ही पथरा गई होंगी, सदमे के कारण.. कोई बात नहीं अलविदा दोस्तों.. ईश्वर करे कि दूर किसी नई जगह पर फलते-फूलते मेरे परिवार के बच्चों ने भी सबकी सेवा करने वाली सीख याद रखी होगी। माँ ने उन्हें भी यही सिखाया होगा। लेकिन डरता हूँ कि कहीं इंसानों का रूखापन देखकर वे गुस्से में न आ जाएँ। वैसे भी अब भावनाओं की हवाएँ और संवेदनाओं के बादल दिखना बंद हो गए हैं... आखिर वातावरण का असर तो उनपर पड़ेगा ही... !