यह बात है उन लोगों की जिन्होंने अपना पर्यावरण खुद बचाया। बात उत्तराखंड राज्य की है। हिमालय की पहाड़ियों में बसे गढ़वाल की। बात तब की है जब यह उत्तराखंड उत्तरप्रदेश से अलग नहीं हुआ था। इन पहाड़ियों में अचानक प्रशासन ने पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई शुरू कर दी। यहाँ रहने वालों ने जब अपने यहाँ पेड़ों को कटते देखा तो काटने वालों को रोकने की कोशिश की। पेड़ को काटने वाले इतनी आसानी से कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने बात पर कान दिए ही नहीं।
पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उस इलाके की स्त्रियों ने सत्याग्रह का तरीका अपनाया। पेड़ काटने वाले जब भी किसी पेड़ को काटने जाते तो स्त्रियाँ पेड़ से जाकर चिपक जातीं। ऐसी ही एक घटना है कि जब पेड़ काटने वाले पहुँचे तो स्त्रियाँ पेड़ से जाकर चिपक गईं। पेड़ काटने वालों ने सोचा कि थोड़ी देर में ये सब हट जाएँगी पर रातभर वे स्त्रियाँ पेड़ से चिपकी रहीं। मजाल है कोई पेड़ को हाथ भी लगा सके।
खबर दूसरे गाँव पहुँची और फिर तीसरे और चौथे। आंदोलन बड़ा होता गया। इस तरह हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने वाला यह आंदोलन चिपको आंदोलन के नाम से जाना गया। इस आंदोलन में सुंदरलाल बहुगुणा का बहुत बड़ा योगदान रहा। समाचार पत्रों में इसकी खबरें छपीं और देश के दूसरे हिस्सों में भी अपने पेड़ों को बचाने का यह विचार फैला। याद रहे अपना पर्यावरण खुद ही बचाना होता है। कोई दूसरा नहीं आता।