सच पूछो तो इन दिनों मुझे सबसे बड़ा खतरा लगता है अपने पिता हो जाने का।
पिताजी जरा में खोल देते हैं सबके सामने कलेजा अपना सब ऊंच-नीच और वे बातें भी जो हैं घर-परिवार की।
सच-सच बता देते हैं वे वे बातें भी, बताने में जिन्हें होती है शर्मिंदगी मुझे।
मामला घर की माली हालत का हो या हो बहू-बेटियों-बच्चों के चाल-चलन का।
सच-सच बता देते हैं सबको कि गांव में कौन-कौन है नंगा बेईमान के मुंह पर कह देते हैं साफ-साफ पर होती है मुझे अक्सर इससे बहुत दिक्कत।
सधते काम कई बिगड़ जाते हैं पल भर में। पटवारी और बड़े हुक्काम बड़े दरवज्जे वाले पटेल और मामा होटल वाला आता है जब भी मौका जलती में खोंस देते हैं पूला।
भुनभुनाते हैं पिता कि इतना जुल्म, इतनी ज्यादती सरासर अन्याय। उम्र के इस दौर तक मैं तो रहा दुनियादार जरूरत पड़ी तो किया सबको सलाम जरूरत पड़ी तो सच को भी कहा झूठ जरूरत पड़ी तो मिलाई हां में हां जरूरत पड़ी तो बोली कई बार जय जरूरत पड़ी तो निपोरे दांत भी जिनके लिए निकलती सदा गाली जरूरत पड़ी तो उन्हें भी कहा भैया प्रणाम। वे हत्यारे थे, वे अत्याचारी थे, वे थे सबसे खतरनाक।
पर हुआ इधर क्या कुछ कि होता नहीं ज्यादा सहन जो सोच भी नहीं सकता खड़ा हो जाता हूं उनके खिलाफ मुंह फट जाता है चाहे जहां सूबेदार को कह आया-चोट्टे साले! और उस कलम वाले को-दल्ले!!
खामियाजा भुगतता हूं फिर लगातार होती है ग्लानि पत्नी कहती कि हो रही है बेटी अब बड़ी कुछ तो बनो दुनियादार।
पिता की आदतें मेरे सामने हॉरर फिल्म-सी दौड़ती हैं लगातार। खलनायक से लगते हैं पिता मेरे वक्त के सफलतम दोस्तों, मैं पिता हो रहा हूं यानी समझते हो?