गाँधी का रमणीय वृक्ष और भारतीय शिक्षा

- रमेश दव

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गाँधी भारतीय शिक्षा को द ब्यूटीफुल ट्री कहा करते थे। इसके पीछे कारण यह था कि गाँधी ने भारत की शिक्षा के बारे में जो कुछ पढ़ा था, उससे पाया था कि भारत में शिक्षा सरकारों के बजाय समाज के अधीन थी। स्व. डॉ. धर्मपाल प्रसिद्ध गाँधीवादी चिन्तक रहे हैं। उन्होंने भारतीय ज्ञान, विज्ञान, समाज, राजनीति और शिक्षा को लेकर बहुत ही महत्वपूर्ण शोध किया है।

गाँधी के वाक्य 'द ब्यूटीफुल ट्री' को जस का तस लेकर डॉ. धर्मपाल ने अपना शोध शुरू किया और अँगरेजों और उससे पूर्व के समस्त दस्तावेज खंगाले। जो कुछ भारत में मिला उन्हें संग्रहालयों और ग्रंथालयों से लिया और जो जानकारी भारत से बाहर ईस्ट इंडिया कंपनी और यहाँ तक कि सर टामस रो से लेकर अँगरेजों के भारत छोड़ने तक की, इंग्लैंड में उपलब्ध थी, उसे वहाँ जाकर खोजा। डॉ. धर्मपाल ने शिक्षा में ठीक वैसा ही काम किया जैसाकि एक समय डॉ. सुंदरलाल ने 'भारत में अँगरेजी राज' को लेकर इतिहास में किया था और स्वयं अँगरेजों और विदेशी इतिहासकारों के साक्ष्य और प्रमाणों से साबित किया था कि ब्रिटिश शासन ने किस प्रकार भारत का सांस्कृतिक अपहरण किया और यहाँ की स्वदेशी व्यवस्था को भंग कर अपना शासन स्थापित कर भारत को करीब पौने दो शताब्दी तक लूटा।

धर्मपालजी अब इस दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने अँगरेजकालीन घटनाओं का जो ऐतिहासिक अन्वेषण कर यह साबित किया कि जिस प्रकार उन लोगों ने न केवल हमारे अर्थशास्त्र और कुटीर उद्योग को समाप्त कर हमारे पूरे अर्थतंत्र को डस लिया, बल्कि भारत का सांस्कृतिक, साहित्यिक, नैतिक और आध्यात्मिक विखंडन भी किया जिससे भारत अपना भारतपन ही भूल गया और अँगरेजी शिक्षा से आच्छन्न यहाँ के कुछ बड़े घरानों के लोग भारत भाग्य विधाता बन गए।

द ब्यूटीफुल ट्री नामक पुस्तक जो धर्मपालजी ने लिखी थी उसका हिन्दी अनुवाद गुजरात में हुआ। चाहिए तो यह था कि वह अनुवाद हिन्दी भाषी राज्य या केंद्र सरकार करवाती लेकिन गाँधी और गाँधीवाद जब दोनों ही सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए निरर्थक हो गए हों, तब इसकी चिन्ता कौन करे? गुजरातियों ने धर्मपालजी का पूरा लेखन हिन्दी और गुजराती दोनों भाषाओं में अनुवाद करके प्रकाशित कर दिया जबकि गुजराती का हिन्दी अनुवाद पढ़ने में उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी हिन्दी क्षेत्र के अनुवादक द्वारा किया गया अनुवाद होता। 'रमणीय वृक्ष' भारत में शिक्षा के नाम से प्रकाशित यह अनुवाद केवल एक पुस्तक नहीं है जिसमें दस्तावेजी प्रमाण और आँकड़े देकर कोई बात भारतीय शिक्षा को लेकर सिद्ध की गई हो, बल्कि यह भारत की शिक्षा की एक जीवंत सामाजिक कथा है।
द ब्यूटीफुल ट्री नामक पुस्तक जो धर्मपालजी ने लिखी थी उसका हिन्दी अनुवाद गुजरात में हुआ। चाहिए तो यह था कि वह अनुवाद हिन्दी भाषी राज्य या केंद्र सरकार करवाती लेकिन गाँधी और गाँधीवाद जब दोनों ही सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए निरर्थक हो गए हों।


गाँधी के समूचे शिक्षा दर्शन और स्वदेशी स्वप्न को धर्मपाल ने जिस तरह से उजागर किया है उससे लगता है कि गाँधी केवल राजनीतिक चिन्तक और प्रयोगी नहीं थे बल्कि वे भारतीय मनीषा के विकास में शिक्षा को महत्वपूर्ण मानते थे। उनके लिए शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान या अंक ज्ञान नहीं थी, बल्कि वे चाहते थे कि शिक्षा हाथ, हुनर और हृदय का एक ऐसा संयुक्त संस्करण हो कि यह लगे कि शिक्षा प्राप्त लड़की या लड़का इस देश का एक कुशल, स्वावलंबी और स्वाभिमानी नागरिक है।

धर्मपाल भी गाँधी की तरह यह मानते थे कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी पहचान होती है। यह पहचान उसकी जीवनशैली, परंपरा, मान्यताओं, दैनंदिन व्यवहार के साथ शिक्षा और संस्कृति के जरिए भी होती है। जिस देश की समाज व्यवस्था भंग कर दी जाए, जिस देश की परंपरा पर आक्रमण पर दिया जाए और जिस देश की शिक्षा का अपहरण कर लिया जाए वह देश यदि गुलाम हो जाता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या? भारत की यह सबसे बड़ी कमजोरी रही कि उसने अपने अच्छेपन की न तो रक्षा की और न बुरेपन को त्यागा।

हमने ज्ञान की साधना छोड़ दी। हमारे आलस्य,हमारी परावलंबी बनने की प्रकृति और अपनी ही व्यवस्था के प्रति अरुचि, उदासीनता और उपेक्षा ने गाँधी ने रमणीय वृक्ष की कल्पना को इस कदर चकनाचूर कर दिया कि आज हम जब देश की 20 करोड़ युवा आबादी को बेकारी की ठोकर खाते देखते हैं तो हमें सिर्फ बाजार और भूमंडली शिक्षा का षड्यंत्र याद आता है, मगर शायद गाँधी और धर्मपाल अगर जीवित होते तो भारतीय शिक्षा की दुर्दशा पर उनकी आँखों में आँसू छलछला आते।