मंगलकर्ता 'श्रीगणेश'...

- स्वाति शैवाल

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विघ्नहर्ता, मंगलकर्ता, हर काम को निर्विघ्न संपन्न कराने वाले देवता हैं गणेश। मुख्यतः महाराष्ट्र से शुरू होने वाले गणेश उत्सव को धीरे-धीरे सारे देश ने सहजता से अपना लिया। आज हर गली, हर नुक्कड़ का अपना एक गणेश होता है। लेकिन गणेश का यह सार्वजनिकीकरण क्या आज भी उसी स्वरूप में है, जिसके जरिए इसकी शुरुआत हुई थी?

यह त्योहारों की बरसात का भी मौसम है और इसकी जोर-शोर से शुरुआत होती है हर काम का निर्विघ्न शुभारंभ करने वाले 'श्रीगणेश' से। गणेश उत्सव करीब है और दिनचर्या तथा काम की भागदौड़ के बीच मशीनी बन चुके आप इस हकीकत को तब जानते हैं जब मोहल्ले के बच्चों की टोली चंदे के लिए घर के गेट पर खड़ी होती है। आप पश्चाताप की-सी सोच के साथ चंदा उन बच्चों के हवाले कर रसीद पा लेते हैं।

कहीं-कहीं हर साल बढ़ती जा रही चंदे की रकम को लेकर झिक-झिक भी मचती है, लेकिन अंततः 'भगवान का मामला है', 'चलो बच्चे कुछ कर तो रहे हैं', 'इसी बहाने अपना भी पुण्य कार्य में योगदान हो जाएगा', जैसे कई तरह के विचारों के साथ चंदा अर्पण कर दिया जाता है। अगले दिन ऑफिस से आकर आप हाथ-मुँह ही धो रहे होते हैं कि दरवाजे की घंटी बजती है, पत्नी दरवाजा खोलती है औरकुछ समय बाद भुनभुनाती हुई अंदर आती है- 'सुबह से ये दूसरी बार है।
  विघ्नहर्ता, मंगलकर्ता, हर काम को निर्विघ्न संपन्न कराने वाले देवता हैं गणेश। मुख्यतः महाराष्ट्र से शुरू होने वाले गणेश उत्सव को धीरे-धीरे सारे देश ने सहजता से अपना लिया। आज हर गली, हर नुक्कड़ का अपना एक गणेश होता है।      


अरे कोई कितना चंदा देगा? पैसे क्या झाड़ पर उगते हैं?' आदि-इत्यादि। पता चलता है कि मोहल्ले में तीसरी जगह गणेशजी स्थापित हो रहे हैं और इसका चंदा भी आप नहीं देंगे तो कौन देगा? त्योहार मनाने की सारी खुशी आपके मन से काफूर हो जाती है और भुनभुनाते हुए या तो दरवाजा बिना चंदा दिए बंद कर दिया जाता है या फिर थोड़ा कुछ दे-दुआकर पीछा छुड़ाया जाता है।

खैर... ढेर सारी 'फलाँ मंडल, अलाँ मंडल' की रसीदों के साथ आपके हाथ में आते हैं कुछ रंग-बिरंगे कागज जिनमें छपा होता है पूरे गणेश उत्सव का कार्यक्रम, वो भी ढेर सारी मात्राओं की गलतियों सहित (ये हमारा मौलिक अधिकार जो ठहरा)। अचानक उस पर नजर डालने के बाद कागज थामने वाली आंटी आश्चर्य के साथ चिल्लाती हैं- 'क्यों रे! इसमें 'तंबोला' तो है ही नहीं? बिना तंबोला के क्या मजा आएगा?'

और बच्चे उतने ही शांत और परिपक्व भाव से समझाते हैं- 'अरे आंटी ऐसा हो सकता है क्या! तंबोला तो रोज ही होगा। वो तो सबसे बड़ा 'अट्रेक्शन' है। उसको कैसे छोड़ सकते हैं?' आंटी राहत की साँस लेकर अदा के साथ मुस्कुराते हुए कहती हैं- 'हाँ, वही तो। बिना तंबोला के भी क्या गणेश उत्सव मनता है?'

अब आता है दिन गणेश चतुर्थी का। सभी दलों को बढ़-चढ़कर दिखावा करना है कि उनका आयोजन 'बेश्ट' है। लिहाजा पूरी दोपहर कॉलोनी की सड़कें 'देवा हो देवा...' के शोर से गूँजती रहती हैं। शाम होते ही हर पांडाल से आवाजें आने लगती हैं। बहुत कम स्थान ऐसेहोते हैं जहाँ सचमुच एकजुट होकर त्योहार मनाने और रचनात्मक कार्य करने का जज्बा दिखाई देता है।

सारे शुरुआती कार्यक्रमों में अधिकांशतः बच्चे या वो माता-पिता आते हैं जिनके बच्चे किसी प्रतियोगिता में भाग ले रहे हों। पूरे समय एक प्रतियोगिता मंच पर और दूसरी बच्चों के माता-पिता के बीच चलती रहती है कि किसका बच्चा 'बेश्ट।' सबसे आखिर में आती है बारी 'तंबोला' की। मंच पर आयोजकों में से एक बच्चा तंबोला का सामान लेकर बैठ जाता है और शुरू होता है... 'तृतीय विश्वयुद्ध।' तंबोला के मामले में सबकी एकजुटता और उत्साह देखते ही बनता है। बारिश हो या और कोई व्यवधान, सब एक स्वर में उससे लड़ने को तैयार हो जाते हैं।

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तंबोला खत्म होने के बाद देर रात गए लोगों में से जिन्हें पैसा मिला वो खुशी-खुशी और जिन्हें नहीं मिला वो थोड़े तंज के साथ घरों की ओर लौटते हैं। कुछ फिकरे भी उछाले जाते हैं- 'आज तो भाभीजी की लॉटरी खुली है। कल पार्टी मिलेगी।' 'भइया अपने हाथ तो कुछ नहीं आया, सब शर्माजी के घर में गया है।' 'आज तो खूब कमाया भई निक्कू ने, लड़का लकी है- हाँ।' इन बातों में आपको कटाक्ष और व्यंग्य के तीखे शूल साफ दिखाई देते हैं। जहाँ तंबोला का एक गेम जीतना जीवन की सबसे बड़ी उपलिब्ध बन जाती है। क्या वाकई ऐसेही त्योहार चाहते हैं हम?

जब आजादी के मतवाले आंदोलनों में जुटे थे तब संस्कृति को एक नए रूप में प्रयोग करने की ठानी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने। उन्होंने महाराष्ट्र में मनाए जाने वाले गणेश उत्सव को स्वतंत्रता आंदोलन तथा जनजागृति से जोड़ने की पहल की। तिलक ने 1893 में यह परंपराशुरू की। तिलक अंधविश्वास में डूबी जनता में आत्मविश्वास तथा सद्भाव पैदा करने लगे। उन्होंने गणपति महोत्सव को सार्वजनिक रूप देकर सामूहिक पूजा को मनुष्य की सामूहिक भावना के रूप में संगठित किया।

आज इस उत्सव की तंबोलानुमा हालत देखकर बुद्धि के देवता गणेश भी लोगों की बुद्धि पर तरस खाते होंगे कि उनके लड्डुओं को सूखे मेवों और चाँदी के वर्क का तथा उनके जन्मदिन को तंबोला का पर्याय बना दिया गया। वे तो चिमटी भर चावल और चम्मच भर दूध से भी खुश थे! उन्होंने माता-पिता को संपूर्ण विश्व की संज्ञा देने, कर्तव्य पालन में अडिग रहने तथा बुद्धिमत्ता से प्राणीमात्र का भला करने का जो संदेश दिया वह केवल ढेर सारी गणेश प्रतिमाओं, तंबोला तथा 'संगीत निशा' तक सिमटकर रह गया।

त्योहार हमारे मन के उल्लास का प्रतीक हैं और आज भौतिकता के पीछे भागती दुनिया में तो इनकी जरूरत हमें एक-दूसरे से जोड़ने के लिए और भी बढ़ जाती है, लेकिन हम इन्हें मात्र मनोरंजन और दिखावे में बदल चुके हैं। कॉलोनी के चार कोनों में जब बच्चों का हर 'ग्रुप' अलग-अलग गणेशजी बैठाने की जिद पर अड़ता है तो बाजार में एक गणेश प्रतिमा कम होती है लेकिन भविष्य के मन में होड़ और दिखावे के कई सारे मंत्र बैठ जाते हैं और ये मंत्र दिलों में दूरियाँ बढ़ाने का काम करते रहते हैं।

साँझा चूल्हा या चौपाल जैसे सुख पहले ही हमसे दूर होते जा रहे हैं। त्योहारों पर एकजुट हो, ढेर सारा आंनद पाने का समय अब हमारे पास कम होता जा रहा है। क्या हमें अब भी कॉलोनी में चार अलग गणेश उत्सवों के आयोजन की कामना है?