जब गजानन बने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में सहायक....
ब्रितानी हुकूमत की गुलामी की जंजीरों से देश को आजाद करने के लिये फड़फड़ा रहे क्रांतिकारियों ने गणेशोत्सव को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया था। दरअसल, अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को एकजुट करने के लिए गणेशोत्सव जैसा पर्व जरूरी था जहां सभी लोग एक पांडाल के नीचे मिल सकें और वहां फिरंगियों को सत्ता से उखाड़ फेंकने पर चर्चा की जाए लेकिन ब्रितानी शासन काल में कोई भी हिन्दू सांस्कृतिक कार्यक्रम या उत्सव को साथ मिलकर या एक जगह इकट्ठा होकर मनाने की इजाजत नहीं थी।
अंग्रेज हुक्मरानों को हमेशा यह डर सताता रहता था कि हिन्दुस्तानी एक साथ इकट्ठा होंगे तो वह सरकार के खिलाफ षडयंत्र रचेंगे हालांकि गोरों के लाख बंदिश लगाने के बावजूद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में पुणे में पहली बार सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाया।
पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा गया, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का जरिया बनाया गया और एक आंदोलन का स्वरूप दिया गया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
गणेशोत्सव सार्वजनिक होने के बाद इसे आजादी की लड़ाई के उपयोग के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गई। बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज भी इससे घबरा गए थे। इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी चिंता जताई गई थी।
रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं, स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। पर्चे में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जा रहा है।
इतिहास की गहराइयों में झांकें तो महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई। महान मराठा शासक छत्रपति शिवाजी ने गणेशोत्सव को राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जोड़कर एक नई शुरुआत की। पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। पेशवाओं के बाद 1818 से 1892 तक के काल में यह पर्व हिन्दू घरों के दायरे में ही सिमटकर रह गया था।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। ऋद्धि-सिद्धि के देव गणेशजी न केवल भारत में अपितु तिब्बत, चीन, वर्मा, जापान, जावा एवं बाली, थाईलैंड, श्रीलंका, म्यांमार एवं बोर्नियो इत्यादि तमाम देशों में भी विभिन्न रूपों में पूजे जाते हैं। यही नहीं, इन देशों में गणेशजी की प्रतिमाएं भी चप्पे-चप्पे पर देखने को मिलती हैं। भारतीय पुराणों में गणेश जी की अनेक कथाएं समाहित हैं।
गणेश पुराण की महिमा सीमाओं की संकीर्णता से परे है, इसलिए पश्चिमी देशों की प्राचीन संस्कृतियों में भी गणेश की अवधारणा विद्यमान है।
भारत से बाहर विदेशों में बसने वाले भारतीयों ने भारतीय संस्कृति की जड़ों को काफी गहराई तक फैलाने का प्रयास किया और इन पर भारतीय देवताओं की पूजा-उपासना का स्पष्ट प्रभाव था जो आज भी है। विदेशों में प्रकाशित पुस्तक गणेश-ए-मोनोग्राफ आफ द एलीफेन्ट फेल्ड गॉड में जो तथ्य उजागर किए गए हैं, उससे इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि विश्व के कई देशों में गणेश प्रतिमाएं बहुत पहले से पहुंच चुकी थी और विदेशियों में भी गणेश के प्रति श्रद्धा और अटूट विश्वास रहा है। (वार्ता)