मिजाज़ की रंगीनी तो अब भी बाकी है...

सुबह-ए-बनारस देखने के बाद ये ज़रूरी हो गया था कि शाम-ए-अवध का लुत्फ भी ले ही लिया जाए। यों भी लखनऊ पता नहीं क्यों एक अजीब तरह से आकर्षित करता रहा है... शायद इसलिए भी कि तमाम देशाटन के बावजूद कभी लखनऊ जाना नहीं हुआ। लखनऊ के किस्से ख़ूब सुने, हजरतगंज से लेकर टुण्डे के कबाब ने भी ललचाया, पर जाना नहीं हुआ तो नहीं हुआ। तो तय कर लिया कि अबके तो जाना है।
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बनारस से लखनऊ अल सुबह पहुँचे। सुबह-ए-अवध भी कुछ कम सुहानी नहीं थी। बल्कि हवा में हल्की ठंडक थी। कार्यक्रम सीधे अमेठी जाने का था इसलिए लखनऊ में ज़्यादा रुकना नहीं हुआ। दिनभर अमेठी में धूप में भटकने के बाद लौटते में रात हो गई थी, थकान भी थी और भूख भी लग रही थी सो गाड़ी सीधे टुण्डे के कबाब पर ही रुकी। यों तो चौक में भी है पर हम पहुँचे अमीनाबाद। उस्मान भाई ने जिस मोहब्बत से खिलाया वो तो कबाब के स्वाद से भी लाजवाब था। अंदर पैर रखने की जगह नहीं थी। हमने काउंटर के पास ही बैठ कर खाया। फिल्म निर्देशक सुधीर मिश्रा भी आए तो कुछ इंतज़ार के बाद ही उन्हें जगह मिल पाई। हमने अपना राजनीतिक विमर्श
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उस्मान भाई से ही शुरू किया। बोले देखिए मुसलमान अभी पूरी तरह तय नहीं कर पाया है। अभिषेक मिश्रा नौजवान हैं, ठीक हैं.... पर रीता जोशी जी की भी पकड़ है। और राजनाथ? देखिए कुछ लोग उन्हें भी देंगे पर कुल मिलाकर मुसलमान अभी कुछ तय कर नहीं पाया है, नेता जो भी कह लें।


इस राजनीतिक विमर्श को देर रात भी और अगले दिन भी आगे बढ़ाया। बीबीसी हिंदी सेवा के उत्तरप्रदेश प्रमुख रहे वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी से भी बात हुई और हजरतगंज के चाट वाले से भी। लगता तो है कि राजनाथ जीत जाएँगे पर आसानी से नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी और लालजी टंडन की जिस विरासत पर राजनाथ सवार हैं वो है तो बहुत समृद्ध पर जो आड़े आ रहा है वो राजनाथ की छवि और ठाकुर तथा ब्राह्मणवाद। ये ठाकुर और ब्राह्मण की खाई कितनी गहरी है ये यहाँ मध्यप्रदेश में बैठकर तो नहीं ही समझा जा सकता। वहाँ घूमने पर ही समझ में आता है...।

राजनाथ ने मुख्यमंत्री रहते जो काम किए हैं वो तो अपनी जगह हैं पर कुछ तो शायद जातिवाद के बीज भी बोए हैं, जिन पर चढ़ी विषबेल तकलीफ दे सकती है। अटलजी के सहायक शिव कुमार और लालजी टंडन को अगल-बगल बिठाकर राजनाथ कोशिश तो भरसक कर रहे हैं। उन्होंने तो टोपी लगाने से भी कोई गुरेज नहीं किया और मुसलमानों को लुभाने की कोशिश में लगे हैं। फिर भी ये कोशिशें कितनी दूर तक जाएँगी ये तो 16 मई को पता चल ही जाएगा। जरूरी ये नहीं है कि राजनाथ जीत जाएँ, अपना राजनीतिक कद बनाए रखने के लिए ये भी ज़रूरी होगा कि वो बड़े अंतर से जीतें।
जैसा कि राजा कि मशहूर ठंडाई वाले राजकुमार त्रिपाठी कहते हैं- अटलजी की बात और थी, सभी से मिलते थे, आज के नेताओं का कह नहीं सकते। पर लखनऊ की बेहतरी बड़ा सवाल है।

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किंग ऑफ चाट पर चटखारे ले रहे थे तो 'सुरभि समग्र' के संपादक श्रीराम शुक्ल मिल गए। अमीनाबाद में इनकी बैठक बड़े-बड़े साहित्यकारों से गुलज़ार रही। वो भी लखनवी तहजीब को लेकर ज़्यादा चिंतित दिखे।

वहाँ से हम पहुँचे चौक में राम आसरे की मशहूर मिठाई की दुकान पर। इस दुकान की स्थापना 1805 में हुई थी। यानी 200 साल से भी ऊपर हो गए। यहाँ का मशहूर मलाई पान खाया। इंदिरा गाँधी भी इस मलाई पान की शौकीन थीं।

लखनऊ मतलब नवाबों का शहर। लखनऊ मतलब नफासत। लखनऊ मतलब अदब। ये सब कुछ लखनऊ में देखने को मिला। वहाँ एक अजीब सा अपनापन इसलिए भी लगा क्योंकि इंदौर की ही तरह लोग भावुक हैं, जल्दी भरोसा कर लेते हैं और खाने-पीने के शौकीन हैं। राजधानी होने से साफ-सफाई भी ठीक ही है। हजरतगंज तो कनॉट प्लेस की तरह ही लगा। सारे बोर्ड भी एक ही तरह के। कितनी भी बड़ी कंपनी हो बाहर बोर्ड तो वो ही तयशुदा श्वेत-श्याम में ही लगे थे। ये भी समझ आया कि लखनऊ को चमकाने में मायावती ने भी बड़ी भूमिका तो निभाई है।

जिन रंगीनियों की वजह से शाम-ए-अवध मशहूर रही वो तो अब नहीं हैं पर फिर भी लखनऊ में वो नफासत और नजाकत तो है ही जो आपको अपना बना ले।

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