कांग्रेस जीती लेकिन नेहरू के करिश्मे की चमक फीकी हुई
-पार्थ अनिल सन 1962 में तीसरा आम चुनाव आते-आते प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सफेद चादर थोड़ी-थोड़ी मैली हो चुकी थी। उनके अपने ही दामाद सांसद फिरोज गांधी ने मूंदड़ा कांड का पर्दाफाश किया था जिसके चलते नेहरू सरकार के वित्तमंत्री टीटी कृष्णामाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था।
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मूंदड़ा कांड को फिरोज ने जिस शिद्दत से उठाया था, वह नेहरू को बेहद नागवार गुजरा था। इसी वजह से दोनों के बीच दूरी बढ़ गई थी। यह बात दूसरे आम चुनाव के बाद 1957-58 की है। 1960 में दिल का दौरा पड़ने से से फिरोज गांधी की मौत हो गई।
इसी दौरान नेहरू पर वंशवाद को बढ़ावा देने का आरोप भी लग चुका था, क्योंकि उन्होंने बेटी इंदिरा गांधी को 1959 मे कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया था। इंदिरा गांधी के दबाव में ही स्वतंत्र भारत में पहली बार एक निर्वाचित राज्य सरकार की बर्खास्तगी हुई थी।
केरल की ईएमएस नम्बूदिरीपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को 1959 में केंद्र के इशारे पर बर्खास्त कर दिया गया था। इसी सबके बीच राष्ट्रीय स्तर स्वतंत्र पार्टी का गठन हो चुका था जिसके मुख्य मुख्य कर्ताधर्ता स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी और मीनू मसानी थे।
मीनू मसानी को स्वतंत्र पार्टी का मुख्य सिद्घांतकार माना जाता था। इस पार्टी ने नेहरू के समाजवाद को सीधी चुनौती दी थी। दरअसल, स्वतंत्र पार्टी जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के भी खिलाफ थी और कोटा परमिट राज के भी।
तो इसी पूरी पृष्ठभूमि में हुआ था 1962 में लोकसभा का तीसरा आम चुनाव। 494 सीटों के लिए हुए इस चुनाव को बतौर मतदाता 21 करोड़ 64 लाख लोगों ने देखा। 11 करोड़ 99 लाख मतदाताओं यानी 55.42 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इस चुनाव पर सरकारी खजाने से कुल 7 करोड. 80 लाख रुपए खर्च हुए थे।
कुल 1985 प्रत्याशी चुनाव लड़े थे जिनमें से 856 की जमानत जब्त हो गई थी। कुल 66 महिलाएं चुनाव लड़ी थीं जिनमें से 31 जीती थीं और 19 को जमानत गंवानी पड़ी थी। कांग्रेस ने 488 सीटों पर चुनाव लड़कर 361 पर जीत हासिल की। उसे 44.72 प्रतिशत वोट मिले थे। उसके 3 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।
दूसरे आम चुनाव की तरह इस बार भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) रही। उसने 137 सीटों पर चुनाव लड़कर 29 पर जीत दर्ज की। उसे 9.94 प्रतिशत वोट मिले जबकि उसके 26 प्रत्याशियों को अपनी जमानत गंवानी पड़ी थी। तीसरे नंबर पर स्वतंत्र पार्टी रही। 7.89 फीसदी वोटों के साथ उसे 18 सीटों पर जीत मिली।
स्वतंत्र पार्टी ने कुल 173 प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा था जिनमें 75 की जमानत जब्त हो गई थी। जनसंघ की सीटों में 1957 के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा का इजाफा हुआ। उसके 196 उम्मीदवारों में से 14 जीते पर 114 की जमानत भी जब्त हो गई। उसका वोट प्रतिशत 3 से बढ़कर 6.44 फीसदी हो गया। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के खाते में 12 और सोशलिस्ट पार्टी के खाते में 6 सीटें गई थीं।
पीएसपी को 6.81 फीसदी और सोशलिस्ट पार्टी को 2.69 फीसदी वोट मिले थे। पीएसपी के 168 और सोशलिस्ट पार्टी के 107 उम्मीदवार चुनाव लड़े थे। दोनों के जमानत गंवाने वाले प्रत्याशियों की संख्या क्रमशः 69 और 75 रही। क्षेत्रीय दलों ने 28 और अन्य पंजीकृत दलों ने 6 सीटों पर जीत हासिल की। कुल 479 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में थे जिनमें से 20 जीते थे और 378 को अपनी जमानत गंवानी पड़ी थी।
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अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा कम होने की शुरुआत : इस चुनाव के पहले तक लोकसभा चुनावों में बतौर नेता अधिकांशतः अंग्रेजीदां उच्च मध्यवर्गीय तबके का कब्जा रहा। 1962 में पहली बार यह कब्जा टूटना शुरू हुआ। संसद में किसान और ग्रामीण पृष्ठभूमि के प्रतिनिधियों के प्रवेश का रास्ता खुला।
हालांकि इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में जरूर गए लेकिन इसी चुनाव में नेहरू के समाजवाद से मोहभंग सिलसिला भी शुरू हुआ और उनके करिश्मे ने अपनी चमक खोनी शुरू कर दी। इस तीसरी लोकसभा का गठन जून में हुआ और 3 महीने बाद ही अक्टूबर 1962 में भारत-चीन युद्घ हो गया।
इस युद्घ से नेहरू को करारा झटका लगा और मृत्यु तक वे इससे उबर नहीं सके। कहा जाता है कि 1962 के चुनाव ने 1967 के आम चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी और फिर 1967 आते-आते भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के एक अध्याय की समाप्ति की कहानी लिख दी गई।
लेकिन सब कुछ के बावजूद इस चुनाव ने कुछ चमत्कारिक फैसले भी दिए जिनसे सिक्के के दूसरे पहलू की जानकारी मिलती है। मूंदड़ा कांड आजादी के बाद भ्रष्टाचार का पहला बड़ा मामला था। इसके लिए तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णामाचारी को जिम्मेदार माना गया। उन्होंने इस्तीफा भी दिया लेकिन 1962 का चुनाव भी लड़ा और निर्विरोध जीतकर लोकसभा में पहुंच गए।
सवाल है कि क्या आज की तरह उस वक्त का जनमानस भी भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा मानने के लिए तैयार नहीं था? दूसरी अहम बात यह थी कि नेहरू के खिलाफ समाजवादी नेता डॉ. लोहिया चुनाव लड़े। उनके द्वारा उठाए गए सारे मुद्दे धरे रह गए और नेहरू को उनसे ज्यादा वोट मिले।
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि आधुनिकता, लोकतंत्र और समाजवाद की राग अलापने वाले प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने जीते-जी बेटी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया और लोकतंत्र में वंशवाद की शुरुआत कर दी और सारे कांग्रेसी दिग्गज खामोश रहे।
नेहरू की लगाई गई वंशवाद की बेल आज भी न सिर्फ कांग्रेस में सरसब्ज है बल्कि दूसरे तमाम दलों में भी लहलहा रही है।
इन्द्रजीत गुप्त, किशन पटनायक, भागवत झा, तारकेश्वरी समेत कई दिग्गज जीते पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी अधिकांश दिग्गज नेता चुनाव जीतने में सफल रहे।
बड़े नेताओं में पहली बार 1962 का चुनाव जीतने वालों में कम्युनिस्ट नेता इन्द्रजीत गुप्त, सुप्रसिद्घ समाजवादी चिंतक किशन पटनायक, कांग्रेस नेता कृष्णचंद्र पंत और भागवत झा आजाद थे।
इन्द्रजीत गुप्त कोलकाता (दक्षिण-पश्चिम) लोकसभा क्षेत्र से जीते थे और उन्होंने लगातार 10 बार लोकसभा में पहुंचने का रिकॉर्ड बनाया। किशन पटनायक ओडिशा के संबलपुर संसदीय क्षेत्र से जीते थे। वे सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लड़े थे और तीसरी लोकसभा में पहुंचने वाले सबसे कम उम्र के सदस्य थे।
निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में राजस्थान के जोधपुर क्षेत्र से लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को विजय मिली थी। एम. अनंतशयनम आयंगर, तारकेश्वरी सिन्हा, जगजीवन राम, गुलजारीलाल नंदा, मोरारजी देसाई, वीके कृष्णमेनन, सरदार स्वर्ण सिंह, सुभद्रा जोशी, केडी मालवीय, लालबहादुर शास्त्री, दिनेश सिंह, विद्याचरण शुक्ल, हुकुम सिंह और अतुल्य घोष आदि कांग्रेसी दिग्गज 1962 का चुनाव जीते थे।
विजयाराजे सिंधिया भी ग्वालियर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर फिर लोकसभा में पहुंची थीं। असम की गुवाहाटी सीट से सोशलिस्ट नेता (पीएसपी ) हेम बरुआ भी चुनाव जीते। आरएसपी के त्रिदिब चौधरी और कम्युनिस्ट नेता एके गोपालन की भी जीत हुई थी।
हिमाचल प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी इसी चुनाव में पहली बार लोकसभा पहुंचे थे। बूटासिंह अकाली दल के टिकट पर पंजाब के मोगा संसदीय क्षेत्र से विजयी हुए थे। रेणु चक्रवर्ती भाकपा के टिकट पर पश्चिम बंगाल की बैरकपुर सीट से जीती।
रिपब्लिकन पार्टी से बुद्घप्रिय मौर्य भी अलीगढ़ से लोकसभा में पहुंचे थे। वे बुलंदशहर से भी चुनाव लड़े थे, लेकिन वहां से हार गए थे। सरदार हुकुम सिंह पटियाला से कांग्रेस के टिकट पर जीते और लोकसभाध्यक्ष बने।
बाहरी मणिपुर संसदीय सीट से सोशलिस्ट पार्टी के रिशांग किशिंग भी महज 42 वोटों से जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे। समाजवादी नेता सुरेन्द्र नाथ द्विवेदी भी ओडिशा की केंद्रपाड़ा सीट से प्रजा समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे।
इस चुनाव में लोहिया और अटलजी भी हार गए... पढ़ें अगले पेज पर...
लोहिया, डांगे, कृपलानी और अटल बिहारी हारे : पिछले दो चुनावों की तरह 1962 के लोकसभा चुनाव में कई दिग्गज हार गए थे। डॉ. राममनोहर लोहिया, श्रीपाद अमृत डांगे, अटल बिहारी वाजपेयी, जेबी कृपलानी, जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक, कांग्रेस नेता ललित नारायण मिश्र, रामधन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर- ये सबके सब हार गए थे।
मुंबई शहर (मध्य) सुप्रसिद्घ कम्युनिस्ट नेता डांगे को कांग्रेस के विपुल बालकृष्ण गांधी ने हराया। अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर और लखनऊ दो जगहों से चुनाव लड़े थे और दोनों ही जगहों से उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। बलरामपुर में उन्हें कांग्रेस की सुभद्रा जोशी ने और लखनऊ में कांग्रेस के ही बीके धवन ने हराया था।
बंबई शहर (उत्तर) से जेबी कृपलानी की हार कांग्रेस के दिग्गज वीके कृष्णमेनन के हाथों हुई। बिहार की सहरसा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के भूपेन्द्र नारायण मंडल ने ललित नारायण मिश्र को पराजित किया था। नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र से खड़े बलराज मधोक को कांग्रेस के मेहरचंद खन्ना ने हराया।
रामधन उत्तरप्रदेश की लालगंज सीट से हारे तो अब्दुल गफूर की हार बिहार की उस वक्त की जयनगर सीट से हुई थी। गफूर तब स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लड़े थे। उनकी जीत भी मात्र 66 वोटों से हुई थी।
सबसे दिलचस्प मुकाबला- नेहरू के खिलाफ लोहिया की ललकार : सबसे रोचक मुकाबला जवाहरलाल नेहरू के लोकसभा क्षेत्र फूलपुर में था, जहां उनके विरुद्घ प्रख्यात समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया चुनाव मैदान में उतरे थे। लोहिया की करारी हार हुई थी। नेहरू को कुल 1 लाख 18 हजार 931 वोट मिले जबकि डॉ. लोहिया को मात्र 54 हजार 360 वोट ही हासिल हुए थे।
इस चुनाव से ठीक पहले डॉ. लोहिया ने कहा था कि मैं मानता हूं कि दो बड़े नेताओं को एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव नही लड़ना चाहिए लेकिन मैं नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ रहा हूं तो इसलिए क्योंकि उन्होंने जनता को 'गोवा विजय' की घूस दी है। यह राजनीतिक कदाचार है। अगर वे चाहते तो गोवा पहले ही आजाद हो गया होता।
लोहिया ने कहा कि दूसरी बात यह है कि नेहरू पर रोजाना 25 हजार रुपए खर्च होते हैं जबकि देश की तीन-चौथाई आबादी को प्रतिदिन 2 आने भी नहीं मिलते हैं। नेहरू की यह फिजूलखर्ची भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। मैं जानता हूं कि इस चुनाव में नेहरूजी की जीत प्रायः निश्चित है। मैं इसे प्रायः अनिश्चित में बदलना चाहता हूं ताकि देश बचे और नेहरू को भी सुधरने का मौका मिले।
लोहिया यह चुनाव हारने के 1 साल बाद ही 1963 में उत्तरप्रदेश की फर्रुखाबाद सीट सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच गए। लोकसभा में पहुंचते ही उन्होंने नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने जो भाषण दिया वह बेहद चर्चित रहा।