साहिब, तुमने लिखा था कि मैं जल्द आगरा जाऊँगा। तुम्हारे उस ख़त का जवाब न लिख सका। जवाब तो लिख सकता था, मगर कल्यान का पाँव सूज गया था, वह चल नहीं सकता। मुसलमान आदमी शहर में सड़क पर बिन टिकट फिर नहीं सकता। नाचारा तुमको ख़त न भेज सका। बाद चंद रोज़ के जो कहार अच्छा हुआ तो मैं तुमको आगरा में समझकर सिकंदराबाद ख़त न भेज सका। मौलवी क़मरुद्दीन ख़ां के ख़त में तुमको सलाम लिखा।
Aziz Ansari
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कल उनका ख़त आया, वह लिखते हैं कि मिर्जा तफ्ता अभी यहाँ नहीं आए। इस वास्ते आज यह रुक्क़ा तुमको भेजता हूँ। मेरा हाल बदस्तूर है। देखिए, खुदा को क्या मंजूर है। हाकिम अकबर ने आकर कोई नया बंदोबस्त जारी नहीं किया। यह साहिब मेरे आशना-ए-क़दीम हैं, मगर मैं मिल नहीं सकता। ख़त भेज दिया है। हनूज़ कुछ जवाब नहीं आया। तुम लिखो कि अकबराबाद कब जाओगे।
5 मार्च 1858 ई. ग़ालिब
साहिब, 25 अप्रैल को एक ख़त और एक पार्सल डाक में इरसाल कर चुका हूँ। आज 30 है। यकी़न है कि ख़त और पार्सल, दोनों पहुँच गए होंगे। एक अमर ज़रूरी बाइस इस तहरीर का है कि जो मैं इस वक्त रवाना करता हूँ। एक मेरा दोस्त और तुम्हारा हमदर्द है। उसने हमने हकी़क़ी भतीजे को बेटा कर लिया था।
अब उसका बापू मुझसे अरज करता है कि एक 'तारीख़' उसके मरने की लिखूँ, ऐसी कि वह फ़क़त तारीख़ न हो, बल्कि मरसिया हो कि वह उसको पढ़-पढ़कर रोया करे।
अठारह-उन्नीस बरस की उम्र, क़ौम का खतरी, खूबसूरत नौजवान, वज़हदार सन् 1273 हिजरी में बीमार पड़कर मर गया। अब उसका बापू मुझसे अरज करता है कि एक 'तारीख़' उसके मरने की लिखूँ, ऐसी कि वह फ़क़त तारीख़ न हो, बल्कि मरसिया हो कि वह उसको पढ़-पढ़कर रोया करे। सो भाई, उस सायल की ख़ातिर मुझको अज़ीज़ और फिक्र-ए-शेर मतरू़क यह वाक़िआ तुम्हारे हस्ब हाल है। जो ख़ूंचकां शेर तुम निकालोगे, वे मुझसे कहाँ निकलेंगे? ब-तरीक़-ए-मसनवी बीस-तीस शेर लिख दो।
मिसरा-ए-आख़िर में माद्दा-ए-तारीख़ डाल दो। नाम उसका 'ब्रजमोहन' था और उसको 'बाबू', 'बाबू' कहते थे। चुनांचे मैं बहर-ए-हज़ज-ए-मसद्दस मजनूं में एक शेर तुमको लिखता हूँ। चाहो इसको आगा़ज़ में रहने दो और आइंदा इसी बहर में और अश़आर लिख लोल चाहो कोई और तरह निकालो। लेकिन यह ख़याल रहे कि सायल को मतवफ्फ़ी के नाम दर्ज होना मंजूर है और 'बाबू ब्रजमोहन' सिवाय इस बहर के या बहर-ए-रमल के और बहर में नहीं आ सकता।