गांधीनगर। गुजरात में 2012 के पिछले विधानसभा चुनाव में दिग्गज पाटीदार नेता और पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की बगावत की विफलता के विश्लेषण से पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति (पास) के नेता हार्दिक पटेल के दो दशक से अधिक समय से राज्य में जमी भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लंबे चौड़े दावों पर सवालिया निशान खड़ा हो जाता है।
पिछले चुनाव से कुछ ही समय पहले गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाने वाले केशुभाई ने दो चरणों वाले चुनाव में पहले और दूसरे चरण में क्रमश: 83 (कुल 87 में) और 84 (कुल 95) यानी कुल 167 (182 में) उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। जीत केवल दो की हुई थी और इसमें खुद उनकी सीट (विसावदर) भी शामिल थी। दूसरे विजेता धारी सीट के नलिन कोटड़िया थे।
पार्टी के प्रत्याशी बने कई दिग्गज पाटीदार नेताओं को धूल चाटनी पड़ी थी। इसे दूसरे चरण में एक भी सीट नहीं मिली थी। चुनाव में 71 प्रतिशत से अधिक के रिकॉर्ड मतदान के बावजूद पार्टी को चार प्रतिशत से भी कम मत मिले थे। इस शर्मनाक हार के सवा साल बाद ही उनकी पार्टी का फिर से भाजपा में विलय हो गया था। तब भाजपा को 115, कांग्रेस को 61, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को दो तथा जदयू और निर्दलीय को एक एक सीट मिली थी। भाजपा ने लगातार पांचवी बार सत्ता में वापसी की थी।
विश्लेषकों का मानना है कि हार्दिक की सभाओं में केशुभाई के जितनी भीड़ नहीं जुटती और पाटीदार आरक्षण आंदोलन के चरम के दौरान नवंबर 2015 में हुए स्थानीय चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस को मिली सफलता की कहानी दोहराया जाना आसान नहीं है। शहरी क्षेत्रों में हमेशा से मजबूत रहीं भाजपा (आंदोलन के दौरान भी शहरी निकायों में जीत) ने ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया है। बाद के उपचुनावों और गैर दलीय आधार पर होने वाले ग्राम पंचायत चुनाव में उसके समर्थित प्रत्याशियों की जीत भी हार्दिक के दावों पर प्रश्न चिह्न खड़े करती है। (वार्ता)