हिंदू संन्यासी संप्रदाय के 13 अखाड़ों के बीच हर कुंभ में पहले शाही स्नान, कैंप स्थान और जुलूस को लेकर आपसी तनातनी और संघर्ष को देखते हुए इस संघर्ष से बचने के लिए ही 1954 में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद का गठन किया गया। 1954 के कुंभ में मची भगदड़ के बाद सभी अखाड़ों ने मिलकर अखाड़ा परिषद का गठन किया। इस परिषद का चुनाव हर छह वर्ष में किया जाता है, लेकिन वर्ष 2004 में निर्वाणी अणि के महंत ज्ञानदास के अध्यक्ष बनने के बाद कभी विधिवत चुनाव नहीं होने के आरोप लगते रहे हैं।
कुछ अखाड़ों के महंतों ने ज्ञानदास को अयोग्य ठहराते हुए चुनाव कराने की मांग शुरू कर दी थी इसके बाद प्रयाग स्थित मठ बाघंबरी गद्दी में 2010 में परिषद का चुनाव हुआ। चुनाव में 13 में सात अखाड़ों निरंजनी, आनंद, महानिर्वाणी, अटल, बड़ा उदासीन, नया उदासीन, निर्मल अखाड़ा के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। जबकि जूना, आह्वान, अग्नि, दिगंबर अणि, निर्वाणी अणि, निर्मोही अणि के पदाधिकारियों ने इसका बहिष्कार किया था।
इस चुनाव में निर्मल अखाड़ा के महंत बलवंत सिंह अध्यक्ष व आनंद अखाड़ा के शंकरानंद सरस्वती महामंत्री चुने गए थे। चुनाव के बाद भी महंत बलवंत सिंह व ज्ञानदास स्वयं को अखाड़ा परिषद का अध्यक्ष बता रहे थे। फिर निरंजनी, नया उदासीन, बड़ा उदासीन सहित कुछ अखाड़े फिर से चुनाव की मांग कर रहे थे। लेकिन कुछ का मानना है कि इस मांग से अखाड़ा एक और टूट की ओर बढ़ रहा है।
निरंजनी अखाड़ा के महासचिव महंत नरेंद्र गिरि का कहना था कि अखाड़ा परिषद दो गुटों में बंटा है, जो किसी के लिए ठीक नहीं है। कुंभ से पहले सामूहिक चुनाव कराने का प्रयास चल रहा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इसके बाद स्वामी नरेंद्र गिरी अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष बने। उन्होंने ही डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह, राधे मां, निर्मल बाबा, रामपाल, आसाराम और उसके बेटे नारायण साईं सहित 14 संतों को फर्जी संत घोषित किया था। अर्थात वे सभी स्वयंभू संत हैं जिनका हिन्दू धर्म की संत धारा से कोई संबंध नहीं है।
अखाड़ा परिषद का गठन : विभिन्न धार्मिक समागमों और खासकर कुंभ मेलों के अवसर पर साधु संगतों के झगड़ों और खूनी टकराव की बढ़ती घटनाओं से बचने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई, जो सरकार से मान्यता प्राप्त है। इसमें कुल मिलाकर तेरह अखाड़ों को शामिल किया गया है। प्रत्येक कुंभ में शाही स्नान के दौरान इनका क्रम तय है।
अखाड़ों का इतिहास : कालांतर में शंकराचार्य के आविर्भाव काल सन् 788 से 820 के उत्तरार्द्ध में देश के चार कोनों में चार शंकर मठों और दसनामी संप्रदाय की स्थापना की। बाद में इन्हीं दसनामी संन्यासियों के अनेक अखाड़े प्रसिद्ध हुए, जिनमें सात पंचायती अखाड़े आज भी अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत समाज में कार्यरत हैं।
अखाड़ों की स्थापना क्रम : अखाड़ों की स्थापना के क्रम की बात करें तो अखाड़ों के शास्त्रों अनुसार सन् 660 में सर्वप्रथम आवाह्न अखाड़ा, सन् 760 में अटल अखाड़ा, सन् 862 में महानिर्वाणी अखाड़ा, सन् 969 में आनंद अखाड़ा, सन् 1017 में निरंजनी अखाड़ा और अंत में सन् 1259 में जूना अखाड़े की स्थापना का उल्लेख मिलता है। लेकिन, ये सारे उल्लेख शंकराचार्य के जन्म को 2055 में मानते हैं। जो उनका जन्मकाल 788 ईसवीं मानते हैं, उनके अनुसार अखाड़ों की स्थापना का क्रम चौदहवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। हालांकि यह उचित नहीं माना जाता क्योंकि शंकराचार्य मठों के इतिहास के अनुसार वे 2055 वर्षों पूर्व हुए थे। जो भी हो सबसे पुराने दसनामी संप्रदाय से ही अखाड़े की मान्यता सिद्ध होती है।
वैष्णव अखाड़े : बाद में भक्तिकाल में इन शैव दसनामी संन्यासियों की तरह रामभक्त वैष्णव साधुओं के भी संगठन बनें, जिन्हें उन्होंने अणी नाम दिया। अणी का अर्थ होता है सेना। यानी शैव साधुओं की ही तरह इन वैष्णव बैरागी साधुओं के भी धर्म रक्षा के लिए अखाड़े बनें।
उदासीन अखाड़ा : साधुओं की अखाड़ा परंपरा के बाद में गुरु नानकदेव के सुपुत्र श्री श्रीचंद्र द्वारा स्थापित उदासीन संप्रदाय भी चला, जिसके आज दो अखाड़े कार्यरत हैं। एक श्रीपंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन और दूसरा श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन। इसी तरह पिछली शताब्दी में सिख साधुओं के एक नए संप्रदाय निर्मल संप्रदाय और उसके अधीन श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा का भी उदय हुआ।
इस तरह कुल मिलाकर आज तेरह विभिन्न अखाड़े समाज और धर्म सेवा के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इन सभी अखाड़ों का संचालन लोकतांत्रिक तरीके से कुंभ महापर्व के अवसरों पर चुनावों के माध्यम से चुने गए पंच और सचिवगण करते हैं। पिछले कुंभ में जूना अखाड़े में किन्नर अखाड़े को शामिल किए जाने का विरोध हुआ था।