एक चुप के साथ : कविता संग्रह

शशिभूषण
ND
रंजीत वर्मा का दूसरा कविता संग्रह है-'एक चुप के साथ।' जब सारी दुनिया में हाहाकार है, शोर है, कोलाहाल है, तब चुप के साथ होना कई मायनों में अर्थपूर्ण है, खासकर एक कवि के लिए। कई बार चुप्पी भी शोर और कोलाहल का सशक्त प्रतिरोध होती है वरना शोर में प्रतिरोध का शोर भी अर्थहीन हो जाता है।

संग्रह की पहली कविता है-'भेड़िए और जंगल' जो संभवतः 1981 में हिरावल के किसी अंक में छपी थी। इस कविता में वे हमारे आसपास मेमनों की शक्ल में घूम रहे भेड़ियों की सही शिनाख्त करते हैं। मेमनों की शक्ल ओढ़े ये भेड़िए हमें बार-बार आश्वस्त करते हैं कि वे खतरनाक नहीं हैं, वे तो न‍िरे मासूम और भोले हैं। लेकिन कवि उनकी असली शक्ल पहचानता है और उसे बार-बार जंगल याद आने लगता है।

संग्रह की शीर्ष कविता है-'एक चुप के साथ' जो माँ को संबोधित करते हुए हमारे समय और जीवन संघर्षों को एक नई व्याख्या देती है। इसी कविता में रंजीत लिखते हैं-'वे कौन लोग हैं/जो पृथ्वी को/नारंगी की शक्ल में देखते हैं/और इसे निचोड़कर/ पी जाना चाहते हैं।' फिर भी कवि निराश नहीं है और लिखता है-' यह तपी हुई अभिव्यक्ति है/उस ताकत के खिलाफ/जो सूरज को हमारे जीवन में/उतरने से रोकती है/जो तिनके सा जला देती है/और कहती है/यह रही तुम्हारे हिस्से की रोशनी।'

फिर वे कहते हैं-'सूरज की तरह उठ रहे हैं/हम तमाम लोग/एक चुप के साथ।' बहरहाल, रंजीत वर्मा की ज्यादातर कविताओं में व्यंग्य का स्वर प्रमुख हैं मसलन-'मैं विपक्ष में हूँ', 'साहित्य के पहलवान', 'वे अयोध्या से आए हैं', 'मध्यवर्गीय कवि', 'कविता लिखने वाले, कविता पढ़ने वाले', 'लड़के दूर भागते चले गए' आदि कविताएँ इसी की बानगी हैं। कविता में व्यंग्य का यह स्वर रंजीत वर्मा को आत्ममुग्धता से भी बचाता है और उन्हें समाज की व्यापक चिंताओं से भी जोड़ता है।

हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता है कि रंजीत वर्मा की कविता में अंतर्विरोध नहीं है। जैसे उनकी एक कविता है-'युद्ध में हमने जाना।' इसकी पहली ही पंक्ति है कि 'कोई युद्ध नहीं चाहता, सब अपनी जीत चाहते हैं।' लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ जीतने के लिए ही युद्ध लड़े जाते हैं? अगर ऐसा होता तो विनाशकारी हथियारों का इतना बड़ा बाजार न होता और उसकी इतनी बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था न होती।

युद्ध पहले भी लड़े जाते थे और तीर, कमान, तलवार से लड़े जाते थे। तब शायद युद्ध हार-जीत के लिए ही लड़े जाते होंगे लेकिन अब युद्ध हार-जीत के लिए उतने नहीं, विकसित देशों के हथियारों की खपत और बहुराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उछाल के लिए ज्यादा लड़े जाते हैं। बहरहाल, संग्रह की एक कविता है 'औरतें: तीन कविताएँ' जिनके बिना इस संग्रह की चर्चा अधूरी होगी।

इस कविता में स्त्री छवि के तीन उत्तरोतर विकसित होते चित्र ही नहीं हैं बल्कि उनके विकास और संघर्ष की एक पूरी दास्तान भी है। एक तरफ वे ' नमक सा घुलती है, हमारे जीवन में, भर जाती है, हमारे इरादों में, लोहे का बुरादा बनकर' तो दूसरी तरफ 'वे कभी नहीं सोचतीं पलटकर, अपने नामहीन रह गए जीवन के बारे में।' लेकिन 'औरतें खड़ी हो रही हैं, चीख और पर्दे से बाहर निकलकर' इसीलिए कवि अपने चित्रकार मित्र को सलाह देता है कि 'तुम जब भी किसी औरत का चेहरा बनाओ, उसमें एक तनी हुई नस जरूर दिखाओ।' जाहिर है कि यह प्रतिबद्धता उनकी संवेदना का हिस्सा बन चुकी है और यही कारण है कि रंजीत वर्मा का यह संग्रह समय के प्रचलित काव्य मुहावरों से बिना प्रभावित हुए अपनी तरह का एक सार्थक हस्तक्षेप है।

पुस्तक : एक चुप के साथ
लेखक : रंजीत वर्मा
प्रकाशक : पुस्तक भवन प्रकाशन
मूल्य : 125 रुपए

वेबदुनिया पर पढ़ें