विगत दिनों राजकमल प्रकाशन ने बेहतरीन उपन्यासों की श्रृंखला प्रस्तुत की है। पेश है उनकी चर्चित पुस्तक चित्रलेखा का परिचय एवं प्रमुख अंश :
पुस्तक के बारे में
'चित्रलेखा न केवल भगवती चरण वर्मा को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने वाला उपन्यास है, बल्कि हिन्दी के उन विरले उपन्यासों में भी गणनीय है, जिनकी लोकप्रियता काल की सीमा को बारंबार लाँघती रही है।'
पुस्तक के चुनिंदा अंश
'कुमार गिरि का हृदय धड़क रहा था। चित्रलेखा को पैरों पर गिरा हुआ देखकर वह चौंक-सा उठा। उसने चित्रलेखा को उठा लिया। ऐसा करने में योगी का हाथ चित्रलेखा के उरोजों से स्पर्श कर गए। चित्रलेखा आनंद से पुलकित हो उठी। योगी के लिए इस स्पर्श का कोई महत्व न था, साधारण रूप से अनजाने उससे ऐसा हो गया था, विचारधारा दूसरी ओर केंद्रीभूत होने के कारण उसने इस पर ध्यान नहीं दिया था, पर चित्रलेखा इसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझी।'
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'चित्रलेखा हँस पड़ी - 'आत्मा का संबंध अमर है! बड़ी विचित्र बात कह रहे हो बीज गुप्त! जो जन्म लेता है, वह मरता है, यदि कोई अमर है तो इसलिए अमर है, पर प्रेम अजन्मा नहीं है। किसी व्यक्ति से प्रेम होता है तो उस स्थान पर प्रेम जन्म लेता है। ...प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, और प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं गिरता। आत्मा का संबंध अनादि नहीं है बीज गुप्त!'
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'कुमार गिरि पागल की तरह बकने लगे- 'तुम मुझे डुबोने के लिए आई हो, मैं भी डूबने के लिए तैयार हूँ। चलो, कितना खुश है, कितनी हलचल है। मेरी आराध्य देवी! मेरी प्राणेश्वरी! आज तुम्हारे यौवन के अथाह सागर में डूबने आया हूँ' - कुमार गिरि के नेत्र बंद हो गए थे। चित्रलेखा के नेत्र भी बंद हो गए थे। दोनों ने एक-दूसरे को आलिंगन पाश में बाँध लिया था!'
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'संसार में इसलिए पाप की परिभाषा नहीं हो सकी और न हो सकती है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।'
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समीक्षकीय टिप्पणी
'चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। पाप क्या है? उसका निवास कहा है? इस उपन्यास का अंत इस निष्कर्ष से होता है कि संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। सम्मोहक और तर्कपूर्ण भाषा ने इस उपन्यास को मोहक और पठनीय बना दिया है।'
चित्रलेखा : उपन्यास लेखक : भगवती चरण वर्मा प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन पृष्ठ : 200 मूल्य : 250 रु.