रसूल हमजातोव को स्थानीयता और प्रकृति के प्रति गहरा राग था। वे इन्हीं रास्तों से सार्वभौमिकता की तरफ जाते थे। आज समकालीन लेखन अधिक नगरीय होता जा रहा है। इसमें विश्व के प्रभावों को ग्रहण करने की प्रवृत्ति है। जो कथ्य और शिल्प में दिखती है। लोक भाषाओं और बोलियों के शब्दों को तेजी से विदाई देने का पर्यावरण विकसित हो रहा है। लोक भाषाएँ और बोलियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं। कोई गंभीर प्रयास तो हैं नहीं पुनर्वास के, यहाँ तक यह सब विचार और चिंता से भी गायब हैं।
ऐसे प्रतिकूल पर्यावरण में जब कोई किताब स्थानीयता को केंद्र में रखकर दृश्य में आती है तो उस पर ध्यान जाना अपेक्षित है। जगदलपुर के युवा कवि विजय सिंह का कविता संग्रह 'बंद टॉकीज' इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। संक्षेप में कहें तो यह वस्तु, भाषा और शिल्प के स्तर पर एक नई उम्मीद है। गहराई और गंभीरता के साथ स्थानीयता का दामन थामे। प्रकृति का मानवीकरण, प्रकृति और मनुष्य के बीच का सजीव संबंध, लोक जीवन के संघर्ष और त्रासदियों के मार्मिक आख्यान और अछूते दृश्य, प्रतीक, बिंब और विरल भावप्रवणता से उद्भूत सत्य कवि को एक भिन्न पहचान देते हैं।
कवि अपने भीतर नदी, जंगल, मिट्टी, हवा का अनुभव करता है जो कविता में चले आते हैं-'मेरी जड़ों में/खेल का पानी है और चेहरे में/ धूसर मिट्टी का ताप/मेरी हँसी में जंगल की चमक/सिर्फ इतना ही नहीं उसकी चेतना में जगरगुंडा (नक्सल प्रभावित गाँव) है और बदलता भयग्रस्त समय भी/ठहरे हुए समय में/ यहाँ सुबह होती है/मुर्गा बाँग देता है जरूर/ लेकिन जगरगुंडा की सड़कें थरथराती हैं/कि कब हाँका आ जाए अंदर से।'
बस्तर अपने अतिक्रांत वैभव का दुखद उदारहण है। प्राकृतिक संपदा का दोहन सर्वज्ञात है। साथ ही आदिवासी के शोषण की निर्मम कथाएँ भी। तिस पर एक ऐसे भय का साम्राज्य कि मूल जीवन की अस्मिता और सौंदर्य प्रभावित। बदलते हुए समय का चित्र है अब- 'हे भगवान/ यह कैसा समय है/जंगल में सन्नाटा नहीं/तितलियों में पंख/झींगुरों में आवाज नहीं/रात में अंधेरा। यह ऐसी अनुभूति और काव्य विचार है जो बस्तर के संदर्भ में झिंझोड़ता है विजय को।
वह बस्तर के वैभव और संपदा को कविता में बचाने के लिए संकल्पित है। भीतरी सतहों में वह अपनी तरह एक लड़ाई में है। इस संग्रह में आपको बस्तर की प्रकृति और आदिम जीवन के दुर्लभ दृश्य और सजीव चित्र मिलेंगे। भाव से ठोस विचारों में आकार पाते यथार्थ अनुभवों की जमीन मिलेगी जिसमें पत्थर, चट्टानों, पुलों, दरकते खेतों, बच्चों के दुखों, काष्ठशिल्प गढ़ते लोगों के संघर्षों के पते-ठिकाने हैं। 'बंद टॉकीज', 'मुहल्ले का नारियल पेड़', 'सूखा बस्तर', 'नोनी की हँसी' और 'कौवड़' जैसी कविताओं में यकीकन एक अलक्षित जगत और समय आँख खोल रहा है। इसे हमें देखना और समझना चाहिए।
यह हाशिए का प्रभावी स्वर है जिसे हम बिसराते हैं और उनकी आलोचना के पात्र बनते हैं। कदाचित हमें उन्हें यह कहने का अवसर नहीं देना चाहिए - अच्छा हुआ मैं बड़ा कवि नहीं हुआ/और नहीं/एकांत, अरुण कमल, देवी प्रसाद मिश्र/राजेश जोशी और आलोक धन्वा की तरह सातवें, आठवें और नौवें दशक के चर्चित कवियों की कविता में शामिल हुआ/न 'पहल' ने मेरी कविता छापी, न 'साक्षात्कार' ने और न ही नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी ने मेरी कविता की तारीफ की/फिर भी मैं/ कविता लिखता हूँ।
पुस्तक : बंद टॉकीज कवि : विजय सिंह प्रकाशन : शब्दालोक मूल्य : 80 रुपए