हरिद्वार का कुंभ समाप्त हो गया। वहाँ गूँजने वाला करोड़ों लोगों का जयघोष आज भी, हरिद्वार-ऋषिकेश के वायुमंडल में व्याप्त है। लोगों ने गंगा स्नान किया, पुण्य लाभ प्राप्त किया और अपने को अमरत्व या मोक्ष के लिए आश्वस्त किया। पर इसका प्रतिफल क्या और कितना है, यह कहना मुश्किल है। हाँ, एक प्रतिफल के रूप में यदि कोई महत्वपूर्ण चीज हाथ आई है तो वह है पुस्तक 'मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ।' जैसे सागर मंथन के बाद चौदह रत्न मिले थे- कुंभ मंथन के बाद यह एक रत्न मिला है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
इस पुस्तक में, जिस प्रामाणिक सामग्री एवं ऐतिहासिक चित्रों को संजोकर, हरिद्वार के कुंभ की सदियों पुरानी कहानी को प्रस्तुत किया गया है। वह निश्चय ही प्रशस्य कार्य हुआ है। यदि पुस्तक को सरसरी नजर से देखें तो इसमें हरिद्वार कुंभ की चित्रमय फिल्म, पिछली चार शताब्दियों की लंबी यात्रा देखने को मिलती है। सर्वाधिक परिश्रम तो कमलकांत ने चार शताब्दी के कुंभ के चित्रों को अनेक दुर्लभ सूत्रों से एकत्र करने और उन्हें क्रमशः प्रस्तुत करने में किया है।
इन चित्रों ने प्रेरणा दी कि हरिद्वार कुंभ का प्राचीन विवरण आदि को लेकर क्यों न पुस्तक प्रकाशित की जाए। 'मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ' हरिद्वार के कुंभ की आत्मकथा है। सदियों पुरानी यह आत्मकथा-भारतीय संस्कृति, धर्म, आस्था, अस्मिता, सभी की कहानी कहती है। इस पुस्तक में आठ अध्याय हैं। 'मेरी वाणी कल्याणी है' यह एक स्वागतधर्मी शहर की रामकहानी है। सुरसरिता गंगा की गोद में पला, खेला, बढ़ा और निरंतर विकास की सीढ़ियाँ चढ़ा। गांगेयवंशी मैं, स्वागत मेरा धर्म और आतिथ्य मेरा गोत्र है।
हरिद्वार या हरद्वार का भ्रम स्पष्ट करते हुए कमलकांत ने लिखा है-'देवभूमि का मैं द्वार हूँ, और आज तो भारत के 29 वें राज्य उत्तराखंड का मैं ही तोरण द्वार भी हूँ।' हरिद्वार या हरद्वार के रूप में कलिकाल का सुप्रसिद्ध हिंदू तीर्थ हूँ। तीसरा अध्याय गरिमामय अतीत का दर्पण इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण अंश है। दरअसल यह हरिद्वार के कुंभ का इतिहास क्रमवार प्रस्तुत करता है।
यही इसकी विशेषता है कि क्योंकि इसमें कुंभ के इतिहास, परंपरा, उल्लेखनीय घटनाओं की खट्टी-मीठी यादों से जुड़ी अनेक दुर्लभ बातें लुप्तप्रायः होने से बच गई हैं। यह अध्याय दस्तावेज है- कुंभ के मेले का। निस्संदेह कमलकांत ने इस समग्र और चित्रों के प्रकाशन में अनेक बाधाओं और कष्टों को झेलकर अथक परिश्रम किया और उसी का फल है यह पुस्तक।
हरिद्वार एक पौराणिक तीर्थ है। इसके बारे में अनेक मिथक हैं। हरिद्वार से जुड़ी ऐसी अनेक रोचक, पुरा कथाएँ कमलकांत ने, संक्षेप में ही सही, 'मेरे मिथक और पुराचर्चाएँ ' अध्याय में दी हैं। यह अध्याय पठनीय है, क्योंकि इससे इस स्थान का देवभूमि होना, पवित्र होना एवं सदियों से चली आ रही कल्याणी परंपरा की पुष्टि होती है।
कहानी यहीं नहीं खत्म होती। पुराणकाल की जो अक्षुण्ण धारा आजकल प्रवाहित होती आई है उसे ईसा या ईस्वी सन् के बाद से जोड़कर आगे बढ़ाया गया है। ह्वेनसांग ने ईसवी सन् 634 में हरिद्वार के बारे में लिखा है कि यहाँ हजारों यात्री नहाने आते हैं। महमूद गजनवी के साथ आए इतिहासकार ओटवी, तैमूरलंग के साथ आए इतिहासकार शर्फुद्दीन ने 1398 के हरिद्वार का विवरण लिखा है।
इसके बाद अंग्रेज पुरातत्ववेत्ता अलेक्जेंडर कनिंघम ने बहुत परिश्रम से इस स्थान का प्रामाणिक इतिहास एवं विवरण तैयार किया। सन् 1608 में जहाँगीर के शासनकाल में पहला यूरोपियन यात्री टॉम कॉरयट भारत आया था और वह जहाँगीर के सुझाव पर हरिद्वार देखने आया था। इस पुस्तक में ऐसे सारे ऐतिहासिक विवरणों को दुर्लभ चित्रों द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
इतिहास में हरिद्वार कुंभ संबंधी जितनी घटनाओं का विवरण दर्ज है, कमलकांत ने उन सभी को इस फिल्म कथा रूपी पुस्तक में ऐसा धारावाहिक रूप दिया है कि चित्रों के साथ वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है। पुस्तक के उत्तरार्ध में हरिद्वार के पुरोहितों पंडों उनकी बहियों में दर्ज वंशावलियों आदि की चर्चा की गई है।
अब हरिद्वार पहले से कई गुना रंग-बिरंगा और सुंदर है। यहाँ भारतीय ही नहीं, बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक भी आते हैं। यों तो हरिद्वार में वर्ष भर मेला लगा रहता है किंतु कुंभ का तो विशिष्ट महत्व है। कमलकांत बुधकर की यह पुस्तक निश्चय ही पाठक सराहेंगे। यह एक दुर्लभ दस्तावेज है जिसमें भारतीय अध्यात्म, धर्म, संस्कृति और समाज सब की छवि समाहित है। यही हरिद्वार कुंभ का पुण्यलाभ है।
पुस्तक : मैं हरिद्वार बोल रहा हूँ लेखक : कमलकांत बुधकर प्रकाशक : हिन्दी साहित्य निकेतन मूल्य : 395 रुपए