नागार्जुन जीवन और कविता में बेहद बेलिहाज और निडर व्यक्तित्व वाले सर्जक रहे हैं। हिन्दी में तो वे संस्कृत पण्डितों और शास्त्रज्ञों की समस्त संपदा लेकर आए थे, उनकी शुरुआती नौकरियां भी इसी शास्त्र-ज्ञान और दर्शन के बल पर संभव हुईं पर हिन्दी के स्वाभाविक प्रवाह को उन्होंने कहीं भी अपनी किसी भी कोशिश से असहज नहीं होने दिया। बल्कि उसे और भी प्रवाहपूर्ण और संगीतमय बनाया। बहुभाषाविद् नागार्जुन तो मातृभाषा मैथिली में ‘यात्रीजी’ के नाम से सुविख्यात और सुप्रतिष्ठित हैं। मैथिली में एक पूरा मैथिली युग ही चलता है। बंगला और संस्कृत में तो उनकी कविताएं उत्सुकता और उल्लास से पढ़ी ही जाती हैं। किन्तु नागार्जुन इतने ही नहीं हैं। सच तो यह कि अपनी विराटता छिपाए हुए वे हमारे समय के विलक्षण काव्य-वामन हैं। जरूरत पड़ने पर वे चकमा भी दे सकते हैं किन्तु उनका औसत चरित्र फक्कड़ाना है। अपने हित-लाभपूर्ण चाक-चिक्य की तो ऐसी-तैसी वे कर ही लेते हैं पर आसपास रहने और आने-जाने वालों को भी देखते रहते हैं कि कौन किस हद तक ‘अपना घर’ फूंक सकता है। जीवन-भर उनकी कसौटियां कुछ इसी तरह की रही हैं।
विजय बहादुर सिंह
16 फरवरी 1940, गांव जयमलपुर, जिला-अम्बेडकर नगर (पूर्व में फैज़ाबाद), उ.प्र.
आलोचना, कविता, संस्मरण, जीवनी लेखन के अलावा कवि भवानीप्रसाद मिश्र, दुष्यन्त कुमार और आलोचक आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी रचनावली का संपादन। आजीविका से अध्यापक रहे विजय बहादुर सिंह ने उच्च और स्कूली शिक्षा पर भी कुछेक पुस्तकें लिखी हैं।
‘आज़ादी के बाद के लोग’ उनके स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज के चारित्रिक प्रगति और पतन से संबंधित लेखों की चर्चित पुस्तक है।हिन्दू धर्म, भारतीय संस्कृति के सवालों पर भी विजय बहादुर सिंह ने स्वयं को जब-तब एक सचेत नागरिक की जिम्मेदारियों के बतौर केन्द्रित किया है।
कई विलक्षण प्रतिभाओं-नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र के अलावा उन्होंने वसंत पोतदार, शलभ श्रीराम सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, शंकरगुहा नियोगी के शब्द-कर्म का विवेचन और संपादन किया है। उनकी कविताओं के अब तक नौ संकलन आ चुके हैं। एक आलोचक के रूप में कविता, कहानी, उपन्यास विधा में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज की है।