डॉ. राहत इंदौरी की नुमाइंदा शायरी के एक संकलन की ज़रूरत बहुत दिनों से अनुभव की जा रही थी। राहत की तीन उर्दू पुस्तकें और पांच हिंदी पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने गीत, ग़ज़ल, नज़्में सब लिखी हैं। बॉलीवुड फ़िल्मों के लिए सुपरहिट नग़मे भी लिखे हैं। मुशायरों के वे सितारे हैं। आज मुल्क में ऐसे शायर इने-गिने ही हैं, जिनकी मक़बूलियत राहत इंदौरी के क़द की हो।
ऐसे में यह बहुत ही ज़रूरी हो गया था कि उनकी रचनाओं का एक प्रतिनिधि संकलन निकले, जो उनकी कविता के सभी गुणों की एक झांकी पाठकों के सामने प्रस्तुत करे और वह भी एक ही जिल्द के भीतर।
हस्बेमामूल, ये राहत की ही बात कही जाएगी कि आख़िर सचिन चौधरी राहत इंदौरी की रचनाएं संकलित और संपादित की। मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने उसके प्रकाशन का बीड़ा उठाया। और अब ये किताब पाठकों के हाथों में है।
राहत इंदौरी की शायरी का इतिहास एक अधसदी तक फैला हुआ है। बग़ल में अपनी शायरी की डायरी दबाकर पूरी दुनिया का फेरा वे लगा चुके हैं। कविता उन्होंने लिखी भी है, पढ़ाई भी है और पढ़वाई भी है, इन मायनों में कि वे शायर हैं, टीचर हैं और एडिटर भी हैं। "शाख़ें" नामक एक तिमाही रिसाले का दस साल तक संपादन वे कर चुके हैं और यूनिवर्सिटी में उर्दू अदब पढ़ा चुके हैं। अनेक इनामो-इक़राम उनकी झोली में हैं, सो अलग।
इतने बड़े कैनवास वाले शाइर की रचनाएं अवाम की ज़ुबां पर चढ़ें, इसके बाद जो दूसरी सबसे बेहतर चीज़ हो सकती है, वो यही है कि उसकी शायरी का एक प्रतिनिधि संकलन आए, जिसमें उसके मुख़्तलिफ़ किंतु नुमाइंदा रंगों और कलेवरों का मुज़ाहिरा पाठक देख सकें।
प्रो. वसीम बरेलवी ने राहत इंदौरी के यहां ओक़ाबी नज़र, मिसाइली लहज़ा और तेज़ाबी तेवर की त्रिवेणी पाई है। उन्होंने कहा है कि राहत इंदौरी की शायरी की नुकीली काट जहां उन्हें अवाम की आख़िरी बेसहारा सफ़ तक ले गई है, वहीं ख़्वास भी उनके एहतेजाज़ी लबो लहज़े के क़ायल हुए बग़ैर नहीं रह सके हैं। हम कह सकते हैं कि वसीम बरेलवी काफ़ी हद तक राहत इंदौरी की शायरी की लोकप्रियता की तह तक पहुंचने में क़ामयाब रहे हैं। और इस किताब के हर पन्ने पर हमें बरेलवी की ये बात याद आने वाली है।
"दो क़दम और सही" नामक इस संकलन में एक तरफ़ जहां राहत की कुछ सबसे मशहूर ग़ज़लें हैं, वहीं "तू शब्दों का दास रे जोगी, तेरा क्या विश्वास रे जोगी, एक पल के सुख की क्या क़ीमत, दु:ख हैं बारह मास रे जोगी", जैसी ख़ालिस हिंदी के ज़ायक़े वाली ग़ज़लें भी हैं। हिंदी ग़ज़ल की ये वही विधा है, जिसको दुष्यंत कुमार ने इतनी बुलंदियों तक पहुंचा दिया था। मस्जिद ख़ाली ख़ाली है बस्ती में क़व्वाली है, जैसी ग़ज़लें उर्दू अदब के उस प्रतिनिधि बेलौस मिजाज़ को दर्शाने वाली हैं, जिसमें बेअदबी के भी शऊर पहचाने गए हैं। हर शाइर की तरह राहत ने अपनी कविता में पुरखों को याद किया है, कहीं पर ग़ालिब को, कहीं पर मीर को। और हुक़ूमत के ज़ुल्मों के प्रति ग़ुस्सा भी राहत के यहां कम नहीं है।
किताब चार खंडों में विभाजित है। पहला खंड है नई ग़ज़लों का, जो राहत इंदौरी के पुराने पाठकों को भी आकर्षित करेगा। दूसरा खंड "चुनिंदा ग़ज़लें" उनके नए पाठकों के लिए नेमत है। तीसरे खंड "चुनिंदा अशआर" में फुटकर शेर संजोए गए हैं। चौथे खंड "फ़िल्मी नग़मे" में राहत के चंद हिट फ़िल्मी गीतों की इबारत दी गई है।
किताब का कलेवर ख़ूबसूरत है। प्रूफ़ की भूलें ना के बराबर हैं और उर्दू शायरी की किताब होने के चलते इसमें नुक़्तों का बख़ूबी ख़याल रखा गया है। उम्दा शायरी के क़द्रदान इस किताब को ज़रूर ही अपनी बुकशेल्फ़ में चाहेंगे।