लीलाधर मंडलोई की कविताओं ने समुद्री हवाओं में उड़ते नमक, नविड़ वनों की निस्तब्धता और लुप्त होती जनजातियों के संगीत से अपनी पहचान बनाई थी। लीलाधर मंडलोई की विशिष्टता उस दुर्लभ अनुभव संसार की है जो हिन्दी के मध्यवर्गीय काव्य-परिदृश्य के लिए अभी तक अछूता और अदृश्य रहा है। उनकी कविताएँ धरती ही नहीं आकाश के बारे में भी सोचती है।
पुस्तक के चुनिंदा अंश *और एक नीला-सा मरा रक्त फर्श पे बह उठता उसके हाथ आ पड़ती मेरी कलम की हथियार और वह अजानी घृणा में चबा के दीवार पे थूकता कि उछर आती कोई अबूझ भाषा कोई इबारत ऐसी जिसे मैं पढ़ नहीं पाता ('सोते में जागते हुए' से) *****
* मैं जिस पेड़ के नीचे हूँ उसमें सूखी पत्तियों के अंतिम मलबूस। फल नहीं यहाँ तक मुरझाई-पपड़ाई फल्लियों के होने के चिह्न गायब। धूप इधर से बरका के रास्ता निकल जाती है। हवा का रास्ता बदला हुआ। मैं इस अजूबे को देख सकते में। मैं अपने नाखून देखता हूँ। मैं उन्हें तेज करना शुरू करता हूँ। मैं अपने रक्त की बूँदों को पेड़ पर उतरते देखता हूँ। ('कि वहाँ पेड़' से) *****
* ईश्वर की मायाओं को वह निरा झूठ समझती थी शिवलिंग पूजक स्त्रियों पे वह खुल के हँसती थी कहना था उसका 'मैं लिंग पूजक नहीं, न शिव की न ही किसी और की अपनी कोख को लेके उसमें अजीब-सा वितृष्णा भाव था वह नहीं चाहती थी अपना कोई उत्तराधिकारी। *****
समीक्षकीय टिप्पणी लीलाधर मंडलोई की कविताएँ न सिर्फ अनेक दुर्लभ प्रसंगों और अछूती स्थितियों के लोक में हमें ले जाती हैं बल्कि वे पूर्व परिचित इलाकों में भी ऐसे गोपनीय दृश्यों को बेनकाब करती चलती हैं। जहाँ यथार्थ भयावहता बिना किसी कौशल के हमें स्तब्ध कर देती है। निरी गद्यात्मकता का जोखिम उठाकर भी कवि का आवेग हमें उन स्थलो तक ले जाना चाहता है, जहाँ यह साफ हो सके कि मुद्दे की तात्कालिकता रूप को नहीं वस्तु को बदलने की है।
कविता संग्रह : काल बाँका तिरछा प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन कवि : लीलाधर मंडलोई पृष्ठ : 120 मूल्य : 125 रुपए