आदिवासी समुदाय में तालीम का सवाल !

धीरेन्द्र गर्ग
आदिवासी विकास और सामाजिक उत्थान की दशा को तौलने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति से बेहतर कोई बटखरा या नपना नहीं हो सकता, लेकिन इन पर आदिवासी विकास को रखने पर यह पता चलता है कि जनजातियों का पलड़ा हल्का ही है।


यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि जब देश में बुलेट ट्रेन और मंगल पर पहुंचने की बात हो रही हो, ऐसे दौर मे भी हजारों आदिवासी लड़कियां शिक्षा की कमी के कारण दूसरों के घरों में काम करने को मजबूर हैं। यह हमारी आधुनिकता और विकासशीलता पर जबरदस्त सवाल खड़े करता है। 
 
2011 की जनगणना कहती है कि 7 से 18 साल की इक्कीस फीसदी लड़कियां निरक्षर हैं, जबकि योजनाओं पर पैसा पानी की तरह लगातार बहाया गया। हालांकि अब पानी बहाना आसान नहीं है बल्कि रेल से पानी मेल करना राजनीति चमकाने का बहाना है। आदिवासियों में भी यदि मीणा जैसी जनजातियों को छोड़ दें तो स्थिति बहुत ही भयावह हो जाती है। अगर हम मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे जगहों पर रह रहे आदिवासियों की दशा देखें तो वहां हर दूसरी लड़की अनपढ़ है। इतना ही नहीं अभी कुछ वर्ष पहले छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया गया।
 
इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि बंद होने वाले अधिकतर स्कूल आदिवासी इलाके के थे। इनके बंद होने का कारण सरकार द्वारा पर्याप्त बच्चे न मिलना बताया गया। यह दशा तब है, जब हमने सालों पहले प्रण लिए हैं कि इक्कीसवीं सदी में कोई अनपढ़ और अपढ़ नहीं रहेगा। दिल्ली के अधिकांश घरों में काम करने वाली लड़कियां आदिवासी हैं जो कि पूरी तरह से अनपढ़ हैं। हमारे चालक समाज की बानगी देखिए, ये लड़कियां उन्हीं के घरों में काम करती हैं जो खुद को आधुनिक और बुद्धिजीवी मानते हैं, जबकि वो ऐसे हैं, इसमें मुझे पूरा शक है। 
 
आइए अब जरा इसकी दूसरी और सबसे अहम तस्वीर देखते हैं। इसका सबसे उदासीन पहलू है हमारी सत्ता व्यवस्था। हमारे यहां सिर्फ कानून बनाकर देश को आगे बढ़ाने और सुधारने की बात कही जाती है। कानून भी बना दिया जाता है और फिर उसे किताबों में छटपटाने के लिए छोड़ दिया जाता है। ऐसा ही एक सेमी-असरदार कानून बना, जिसका नाम है शिक्षा का अधिकार। जो आज भी उन तक नहीं पहुंच पाया जिनके लिए इसे अस्तित्व में लाया गया था।
 
अपने यहां अभियान बहुत चलते हैं जिनमें ज्यादातर अभियान राजनीतिक रूप से लूले होते हैं, तभी तो ये सिर्फ चलते हैं दौड़ते नहीं। ऐसा ही एक अभियान है- सर्वशिक्षा अभियान। इस अभियान से सरकार ने शिक्षा को बुनियादी हक जरूर बना दिया लेकिन स्कूल की शैक्षणिक स्तर और उनकी दूरी में कोई बदलाव आया है! आज भी आदिवासी इलाकों में कोसों चलकर लड़कियां पढ़ने जाती हैं, लेकिन जब उन्हें वहां कुछ मिलता नजर नहीं आता, तो वे स्कूल छोड़ने पर विवश हो जाती हैं। यहां से उनके शहरों की तरफ जाने का सिलसिला शुरू होता है, जहां वे हर तरह से प्रताड़ना का शिकार होती हैं। ऐसा नहीं है कि सर्व शिक्षा अभियान से पहले देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
 
1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह कहा गया था कि आदिवासी इलाकों के लिए अलग स्कूल खोले जाएं, अलग शिक्षक रखे जाएं जोकि वहां की भाषा व अन्य पहलुओं से परिचित हों। यहां तक कि एक अलग पाठ्यक्रम की बात भी कही गई थी। लेकिन यह सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा, जिसकी वजह से समाज का एक बड़ा हिस्सा अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हो गया। बड़ा हिस्सा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि प्राथमिक स्तर पर 25 फीसदी और हायर सेकेंडरी स्तर पर लगभग 51 फीसदी लड़कियां पढ़ाई नहीं कर पा रही हैं। इस तरह समाज की एक बड़ी आबादी शिक्षा से लगातार महरूम होती चली जा रही है।
 
लेकिन ऐसा क्यों है कि आदिवासी बच्चों में ड्रॉपआउट रेट ज्यादा है? इसके तह तक जाएं तो पता चलेगा कि उन्हें जो शिक्षा दी जा रही है, वह दिल्ली और मुंबई के पैटर्न पर है, उस शिक्षा का मिजाज पूर्णतः बाजार आधारित है। ऐसे में इस पढ़ाई-लिखाई का लाभ मिलता उन्हें कहीं नजर नहीं आता। उनके सिलेबस मे स्थानीय या कहें कि उनके समाज के स्वतंत्रता सेनानियों, खिलाड़ियों, साहित्यकारों आदि लोगों के बारे में नहीं बताया जाता, जिससे कि बच्चा खुद को स्कूल के माहौल से जुड़ा हुआ नहीं महसूस करता है और यही उसके ड्रॉप आउट की मुख्य वजह भी बनता है।
 
ऐसे में अगर उन्हें वह शिक्षा दी जाए जो उनकी भाषा में हो, जिससे उनकी संस्कृति समृद्ध होती दिखे और उनको खेतों, जंगलों आदि में उस पढ़ाई का लाभ नजर आए तो शायद उनमें पढ़ने की ललक भी जगे। स्थानीय हालात के हिसाब से आदिवासियों को लगता है कि उन्हें मिल रही शिक्षा का कोई फायदा भविष्य में नहीं है। ऐसा उन्हीं के साथ नहीं बल्कि भारत में सभी ग्रामीण इलाकों के लोगों के साथ है। उनको ऐसी शिक्षा दी जा रही है जो न तो उनकी बोली में है और न ही उनके बीच के लोग उन्हें पढ़ा रहे हैं।

ऐसे में यही बड़े कारण बन जाते हैं जिससे कि आदिवासी बच्चे शिक्षा से मुंह फेरते हैं। नीतियों के स्तर पर कोई कमी है ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता। बस जरूरत है एक मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति की। जिससे हम इस तस्वीर को बदलकर आदिवासियों को देश की मुख्यधारा से जोड़ सकते हैं।

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