वर्तमान में मुझे विवाह की परिभाषा बदलती हुई नजर आ रही है। अब विवाह का अर्थ वि + वाह! पर आधारित हो गया है अर्थात विवाह वही जिसे देखकर लोग कहें - वाह वाह! वाह वाह! यह स्थिति कमोवेश हर वर्ग में देखने को मिल जाती है। आपके पास पर्याप्त अर्थ(धन) की व्यवस्था हो या न हो, वाहवाही जरूरी है। भले ही यह मुहँ देखी हो। इसके लिए हम अपनी सामर्थ्य के बाहर जाकर भी आयोजन करने से पीछे नही हटते हैं। बस यहीं से शुरू होता है-खर्चीली शादियों का चलन, जो हमारे झूटे दर्प को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह कुछ समय के लिए हमारी "नाक" को बड़ी जरूर कर देता है लेकिन बाद में देखा देखी करने वालों की "नाक" कटवाने से भी पीछे नही रहता है और कभी कभी तो हमारी भी।
खर्च करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है इसलिए औचित्य- अनोचित्य की बात करना बेमानी है। हम सब यही कहेंगे- खर्चीली शादी का कोई औचित्य नहीं पर जब अपना वक्त आएगा तो वही करेंगे जो अन्य लोग करते आए हैं। बराबरी तो कोई भी, कभी भी, किसी भी क्षेत्र में नही कर सकता लेकिन बढ़-चढ़ कर, करने का प्रयास जरूर करता है। क्योंकि आज का दौर दिखावे का और मनमर्जी का है। इस दौर में जागरूक और मितव्ययी व्यक्ति भी अपने परिजनों और अपनी प्रतिष्ठा के दवाब में, वह सब करता है जिसे हम अनुचित और अनावश्यक ठहराते हैं। जो हो रहा है वह आगे भी होता रहेगा। मैं यहां विवाह में होने वाली फिजूलखर्ची के बारे में कुछ नही लिखना चाहता क्योंकि मैं जानता हूँ उपदेश देने सरल है पर उन पर अमल करना नामुमकिन।
हां, एक बात जरूर कहना चाहता हूँ, जिसे हम सब अपना सकते हैं और इसके लिए समारोह में शामिल होने गये अपने परिजनों/मित्रों को भी प्रेरित कर सकते हैं। वह यह- प्लेट में खाना उतना ही लें जितना जरूरी हो। समारोहों में अनेक स्टॉल होते हैं उनमें से भी वही लें जो आपके स्वास्थ्य के लिए हितकर हों। पेटू न बनें।
मैने अक्सर उन लोगों को देखा है- जो अपनी प्लेट में सब चीजें बहुतायत में उंडेल लेते हैं और फिर उन्हें ना खाने की स्थिति में डस्टबिन में डाल देते हैं। हमारी इस खराब आदत को यदि हम बदल सकें तो यही हमारे लिए खर्च बचाने में बड़ा योगदान होगा। कम से कम हम खुद तो आत्म सन्तोष लेकर लौटेंगे ही।