कैलाश चंद्र पंत : एक लोकसंग्रही व्यक्तित्व

प्रो. रमेश चंद्र शाह
 
‘बायो डाटा’ को हमारे यहां जीवन-वृत्त कहा जाता है और यह अकारण नहीं है। मनुष्य का जीवन या कह लीजिए, मनुष्य की आयु-रेखा कभी एक सीधी लकीर का अनुसरण नहीं होती है, वह वृत्ताकार ही हो सकती है, बल्कि वर्तुल जिसे कहते हैं वैसी। हम वहीं पहुंच जाते हैं, जहां से प्रारंभ किया था, "इन माइ बिगनिंग इज माई एंड" – जैसा कि आधुनिक कवियों में अग्रणी टी.एस.इलियट की एक कविता कहती है (मेरे प्रारंभ ही में मेरा अंत है)। अन्य संस्कृतियों की तुलना में भारतीय संस्कृति में इस तथ्य तो कहीं अधिक निर्भ्रान्त ढंग से स्वीकार किया गया है।



क्या यह तथ्य नहीं, कि बच्चे अपने माता-पिता की तुलना में अपने दादा-दादी अथवा नाना-नानी को अधिक अपने निकट पाते हैं ? क्या यह भी तथ्य ही नहीं कि उम्र के इस आखिरी पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते हमारी स्मृति का आचरण भी बदल जाता है, कल-परसों क्या हुआ था। इसकी अपेक्षा पचास-साठ-सत्तर वर्ष पहले क्या हुआ था – इसकी स्मृति अधिक तात्कालिक और सजीव हो सकती है। क्यों ? इसलिए न, कि यह हमारा दूसरा बचपन है, यानि लगभग वैसी ही स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं, जीवन–चक्र हमें फिर से वहीं ले आता है – जहां से फिर एक दूसरे धरातल पर नई धरती पर नई जीवनयात्रा आरंभ होगी।
 
 
   यह सन् 1962 की बात होगी, जब इसी भोपाल नगरी में कैलाशचंद्र पंत नाम की शख्सियत की नजदीकी हासिल हुई थी। संयोग भी अकारण घटित नहीं होते। मेरे एक पहाड़ी बंधु हुआ करते थे डॉ. हरीशलाल शाह, महू के वेटनरी कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनके निमंत्रण पर मेरा महू जाना हुआ था, पंत जी के बड़े भाई साहब उन्हीं मेरे बंधु के अत्यंत प्रिय आत्मीय मित्र हुआ करते थे और उन्हीं के घर उनसे – अर्थात पंत जी के भाई से परिचय हुआ था। उसी नाते उनके अनुज से भी । हमारी मैत्री इसी निमित्त से आरंभ हुई और चूंकि कैलाशचंद्र जी भोपाल ही रहते थे, अत: हमारा मिलना-जुलना शीघ्र ही नैमित्तिक से नैत्यिक की श्रेणी में पहुंच गया । वह मैत्री ही क्या, जिसकी जड़ में एकाध व्यसन या दुर्व्यसन भी न हो। पक्का निश्चय तो नहीं है, किंतु एकदम कच्चा अनुमान भी इसे नहीं कहूंगा, कि पंत जी भी मेरे ही ‘पान’ के – यानी बाकायदा खुशबूदार जर्दे वाले पान के शौकीन थे। परंतु असली रागबंध तो हमारे उनके बाच साहित्य का था। दरअसल पान-जर्दा तो बाद में आया या साथ ही साथ आया। पंत जी मेरे ही तरह साहित्यानुरागी थे, साहित्य का चस्का उन्हें तभी पड़ गया था और वह गहरा चस्का था, जो कि बदस्तूर कायम है और नित नए रंग दिखाता रहा है।
 
इसी से लगा-लिपटा एक और व्यसन भी है उनका। वह तभी जड़ पकड़ चूका था - संपादन का, पत्रकारिता का। यहां मैं उनसे होड़ करने में अक्षम था। ईर्ष्या ही कर सकता था। मुझे लगता है, क्या पता वह मेरी पहली ही कहानी रही हो, जिसे अपने द्वारा संपादित पत्रिका ‘शिक्षा प्रदीप’ में पंत जी ने बाकायदा प्रकाशित किया था, पहली- यानी, वयस्क जीवन की पहली कहानी। एकदम कच्ची अनगढ़ और प्रारंभिक रचना इस विधा की रही होगी वह।
 
उन दिनों भोपाल मेरे लिए नया-नया नगर था। विचित्र संयोग, कि मेरे लिए इस नगर की अजनबीपन को कम करने और उससे अपना तालमेल बिठाने में सर्वाधिक मदद जिन्होंने की, वे दोनों ही महानुभाव मालवा की संस्कृति में पगे हुए और भाषा–संवेदना के धनी थे और दोनों ही इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज के स्नातक और हीरो भी रह चुके थे।पहले मुझे रमेश बक्षी का साथ मिला और तदनंतर कैलाशचंद्र पंत जी क । मैं अत्यधिक समाज–भीरु,ऐकान्तिक स्वभाव का व्यक्ति था। पंत जी इसके ठीक उलटे अत्यंत सामाजिक और लोकसंग्रही। यदि मैं भूल नहीं करता तो भोपाल के इसके प्रवासी कुमाउंनी समाज से मुझे परिचित कराने की उत्साहपूर्ण पहल भी पंत जी ने ही की थी। उनमें भी सबसे जिन्दादिल और रोचक लोगों से पंत जी आदमी को परखने में, कौन कहां है, क्या कदोकामत है उसकी – भाविक या बौद्धिक इसे भांपने या पकड़ने में कभी चूकते नहीं। ज्यादातर लोग इस मामले में चूकते नहीं। सुनने में आसान लगता है, पर यह बड़ा विरल और दुर्लभ गुण है। 
 
ज्यादातर लोग इस मामले में चूकते ही नजर आते हैं, उनका जजमेंट विश्वसनीय नहीं होता, क्योंकि वह उनके ईगो की पल-पल बदलती रंगतों के अनुसार रंग पकड़ता है : न कि जो वास्तविक मानुषी सत्ता सामने है, उसके यथावत् साक्षात्कार से। यह ईगो प्राब्लम हमारे पढ़े-लिखे और सत्ताधारी समाज की बहुत बड़ी कमजोरी है, लगभग लाईलाज व्याधि जिसके दुष्परिणाम क्या शिक्षाजगत, क्या विद्वतजगत और क्या साहित्यिक परिवेश सब जगह उजागर है। ईगो भला किसमें नहीं होता? बिना ईगो के तो हम खड़े ही नहीं हो सकते। समस्या एक परिपक्व अहम विकसित करने की होती है। जो यथास्थान स्वयं को स्थगित और विसर्जित भी करने में सहज सक्षम हो। जिसमें दूसरे के दूसरेपन का भी यथावत अनुभव और आकलन शामिल हो। पंत जी का लोकसंग्रही व्यक्तित्व इस माने में बड़ा सजग संवेदनशील रहा है, उनके क्रियाकलाप, उनकी उपलब्धियां उसी से प्रेरित और संभव हुई हैं, यह देख पाना उन्हें करीब से जानने वालों के लिए तो सजग है ही, सामान्य जानकारों के लिए भी कठिन होना चाहिए। कहना न होगा कि उनकी भावी गतिविधियों के, भावी प्रवृतियों के और भावी सफलताओं के भी पर्याप्त लक्षण उनके उन आरंभिक दिनों में प्रगट हो चुके थे, ऐसा मुझे प्रथम दृष्टि से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है।
 
पंत जी सजग और दायित्वप्रवण पत्रकार के रूप में बहुत जल्द ही अपनी पहचान बना चुके थे। क्या ‘जनधर्म’ नामक साप्ताहिक की सुदीर्घ कार्यशीलता से, और क्या अक्षरा के प्रधान संपादक की हैसियत से। पत्रकारिता हमारा क्षेत्र नहीं है, किंतु समझदार और संवेदनशील पत्रकारिता क्या होती है, क्या होनी चाहिए इसका पर्याप्त पुष्ट प्रमाण उनका विशाल पाठक वर्ग उनके संपादकीयों से, लेखों से निरंतर पाता रहा होगा। मिशाल के तौर पर मात्र अक्षरा के एक अंक का सम्पादकीय ही देख लें जिसकी शुरुआत ही यों होती है - " देश में जिस प्रकार के नित्य नये रहस्योदघाटन हो रहे हैं, भ्रष्टाचार तथा अपराधों के समाचार बढ़ रहे हैं, और उसके बाद भी बुनियादी चिंताओं के प्रति नागरिकों में व्याप्त उदासीनता क्या हमें एक जनतांत्रिक देश का नागरिक कहलाने का नैतिक अधिकार देती है?" यह प्रश्न अपना उत्तर आप है।
 
पंत जी के आयोजन - सामर्थ्य का सभी लोहा मानते हैं। जितनी गतिविधियां आज उनके द्वारा पोषित - संचालित हिंदी भवन में चल रही है, किसी को भी चकरा देने वाली है। उनका साहित्यानुराग इन गतिविधियों से प्रमाणित होता है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। देश की महत्वपूर्ण मीडिया पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ अक्षरा के यशस्वी संपादन के लिए पं. बृजलाल द्विवेदी अखिलभारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत कर रही है। इस अवसर उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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