कायनात नाम की एक नवोदित लेखिका की किताब के लोकार्पण का निमंत्रण पत्र देखकर परिष्ठ कॉमरेड साहित्यकार कृष्णा सोबती नाराज हो गई। हुआ यूं कि कायनात ने अपनी किताब ‘कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज’ के लोकार्पण के अवसर पर डीडी न्यूज के कंसल्टिंग एडिटर विजय क्रांति, टीवी पत्रकार एवं स्तंभकार अनंत विजय और शिक्षाविद डॉ. सच्चिदानंद जोशी को बुलाया था।
कृष्णा सोबती ने अपने नाम के साथ निमंत्रण पत्र पर तीन गैर कम्यूनिस्टों का नाम देखते ही किताब की लेखिका को धमकी भरा फोन किया। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई संघियों के साथ मेरा नाम लिखने की। इतना ही नहीं, 90 साल की उम्र को पार कर रहीं असहिष्णु कॉमरेड साहित्यकार ने मुकदमें की धमकी तक दे डाली। लेकिन किताब लोकार्पण पर मुकदमे का आधार ना लेखिका ने समझा ना बुजुुर्ग कॉमरेड ने बताने की जरूरत समझी। लेकिन एक बुजुुर्ग कॉमरेड लेखिका की असहिष्णु भावना का ख्याल करते हुए नवोदित लेखिका ने किताब लोकार्पण का अपना इरादा जरूर टाल दिया।
बौद्धिक आतंकवाद शब्द पर पिछले लंबे समय से मीडिया और समानांतर सोशल मीडिया पर चर्चा हो रही है। इस विषय में अभी तक अपनी कोई राय नहीं बना पाया हूं लेकिन बौद्धिक सवर्णवाद को लेकर अब अपनी धारणा बन गई है। इस देश का कम्युनिस्ट तबका खुद को बौद्धिक सवर्ण समझता है और राष्ट्रवादी विचारकों को जिसे आजकल दक्षिणपंथी कहने का चलन है, अछूत समझता है।
इस धारणा के बनने की लंबी प्रक्रिया है। जो मेरे सामने उदय प्रकाश से प्रारंभ होती है। उदय प्रकाश गोरखपुर के एक साहित्यिक आयोजन में शामिल हुए। कम्युनिस्ट सवर्णों के लिए चर्चा का विषय यह नहीं था कि उदय साहित्यिक आयोजन में शामिल होकर क्या बोलकर आए? विद्वानों की परख उनके लिखने और बोलने से ही तो होगी। उनके बीच मुद्दा-ए-बहस यह था कि उदय जैसा सवर्ण बौद्धिक एक राष्ट्रवादी अछूत बौद्धिक आदित्यनाथ के साथ एक मंच पर कैसे गया? कम्युनिस्ट खाप का भय ऐसा कि इस घटना को सालों गुजर गए, लेकिन आज तक उदय प्रकाश को गाहे बगाहे आदित्यनाथ के साथ मंच साझा करने के लिए सफाई देनी पड़ती है।
कॉमरेड मंगलेश डबराल एक बार राकेश सिन्हा के इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के मंच पर आए थे। उसके बाद कॉमरेड उनके पीछे पड़ गए। मजबूर होकर उन्हें झूठ बोलना पड़ा कि वे नहीं जानते थे कि राकेश सिन्हा कौन हैं और इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन का राष्ट्रवादियों से कोई संबंध है। वे अपनी एक शिष्या के कहने पर राकेश सिन्हा के साथ मंच साझा करने को तैयार हुए थे। यह मंगलेश डबराल की सफाई थी। इस बात का अब तक वे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए कि यदि जिनके साथ वे मंच साझा करके लौटे, यदि वे दक्षिणपंथी भी हैं तो उनके साथ वैचारिक छूआछूत की वजह? उनके साथ अछुतों सा व्यवहार क्यों?
अरूंधति और वरवर राव ने गोविंदाचार्य के साथ मंच साझा करने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि बकौल अरूंधति उनके हाथ खून से रंगे हैं। संभव है ऐसा वे श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में गोविंदाचार्य की भूमिका की वजह से बोल रहीं होंगी, लेकिन मंच छोड़कर भागने की जगह श्रीरामजन्म भूमि आंदोलन से जुड़े सवालों को वह जनता के सामने मंच से पूछती और गोविंदाचार्य का पक्ष सुनती, तो क्या यह अधिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं होती लेकिन अरुंंधति का तो वास्तव में बैर लोकतंत्र से ही है। वह कश्मीर को भारत से अलग करने वालों के साथ खड़े होकर कभी उनका हाथ नहीं टटोलती। उनके हाथों से टपकता हुआ गरम लहू उन्हें कभी नजर नहीं आता। अरूंधति को सिर से पांव तक रक्त में डूबे हुए नक्सली भी प्रिय हैं।
बात दक्षिणपंथियों की करें, तो प्रगतिशील साहित्य की पत्रिका हंस के आयोजन में तरुण विजय, गोविंदाचार्य, चंदन मित्रा जैसे दक्षिणपंथी संगत कर चुके हैं। इस पर किसी दक्षिणपंथी ने सवाल खड़ा नहीं किया कि विशुद्ध कम्यूनिस्टों के मंच पर कोई दक्षिणपंथी क्यों गया? रेखांकित करने वाली बात यह है कि इस तरह के आयोजन को कॉमरेड दक्षिणपंथी वैचारिक दलितों के मंदिर प्रवेश जैसा देखते हैं। उस खेमे में जो कट्टरपंथी सवर्णवादी बुद्धीजीवी भी हैं, जो इस तरह के प्रवेश के भी विरोध में खड़े हैं। जैसे कि अरूंधति राय और वरवर राव, जो गोविंदाचार्य के साथ मंच साझा करने से इंकार कर देती हैं।
इन कम्यूनिस्टों का वश चले तो केजी सुरेश के साथ आईआईएमसी में काम कर रहे कॉमरेड आनंद प्रधान से इस्तीफा मांग लें। साहित्य अकादमी से लेकर एनबीटी जैसे तमाम सरकारी संस्थाओं से कॉमरेड को बोलकर इस्तीफा दिलवा दें कि वे राष्ट्रवादियों या दक्षिणपंथियों के साथ काम कैसे कर सकते हैं? वे तमाम विश्वविद्यालयों से कॉमरेड शिक्षकों का इस्तीफा दिलवा दें, यदि उनका कुलपति कोई राष्ट्रवादी या दक्षिणपंथी हो लेकिन इस मामलें में जितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, वह कम्यूनिस्टों के कुवत के बाहर है, इसलिए वह ऐसा कोई दाव चलते नहीं। यह नाखून कटाकर शहीद कहलाने का मजा लेना चाहते हैं।