आइए, अपने घर को बनाएं स्वर्ग-सा सुन्दर

- प्रज्ञा पाठक 
'छुट्टी' एक ऐसा शब्द है,जो बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी को आकर्षित करता है। सभी के अपने अपने निर्धारित काम हैं, जो प्रतिदिन करना होते हैं। लेकिन दिल और दिमाग कुछ समय का अवकाश चाहते हैं। कुछ ऐसा करना चाहते हैं, जिससे उनका मनोरंजन हो, जो उन्हें निरंतर चल रहे कामों के नित्य तनाव से कुछ देर के लिए ही सही, मुक्ति दे।

सप्ताह में एक दिन लगभग सभी का अवकाश रहता है। सभी इस दिन विलम्ब से उठकर अपनी हफ़्ते भर की थकान उतारते हैं। जागृत होने के बाद लगभग परिवारों में गृहस्वामिनी के समक्ष फरमाइशें आना शुरू हो जाती हैं विविध प्रकार के व्यंजनों की। सभी अपनी अपनी पसंद उससे पूर्ण करवाना चाहते हैं। फिर पतिदेव की इच्छा रहती है कि वो कुछ समय नितांत उन्हीं के साथ रहे और बच्चे अपनी 'माँ ' से वो सब अच्छा-बुरा बाँटना चाहते हैं, जो बीते सप्ताह उन्होंने जीया है।

सभी की स्नेहिल अपेक्षाओं के बोझ से दबी गृहस्वामिनी प्रसन्नतापूर्वक कमर कस काम में जुट जाती है। चाय और नाश्ते से आरम्भ हुआ क्रम घर की सफाई, वस्त्र प्रक्षालन, भोजन, मेहमान आदि से गुजरता हुआ बच्चों की सभा तक आ पहुंचता है। अंत में जब थकी-हारी गृहस्वामिनी पतिदेव की सेवा में पहुँचती है, तो उसके श्रृंगारित मुख के पीछे छिपी क्लान्तता पतिदेव की बारीक निगाहों से बच नहीं पाती।

अब तानों-उलाहनों का दौर शुरू होता है, जिसे झेलना वो अपनी नियति मान चुप रहती है क्योंकि 'अपना पक्ष' रखने की उसे आज़ादी नहीं और इच्छा भी नहीं क्योंकि इससे घर की शांति भंग होने का खतरा होता है। जीवनसाथी के कटु वचनों को दिल पर पत्थर रख सुनती हुई वो अंततः उन्हें अपने स्नेह-वचनों से मनाकर उनकी छुट्टी सार्थक कर देती है। सभी की 'छुट्टी की ख़ुशी' अपने मन-आँगन में समेटे मुदित-सी वो पुनः अगले दिन की तैयारी में जुट जाती है।

अब तनिक सोचकर देखिये कि छुट्टी के इस पूरे दिन में गृहस्वामिनी ने क्या जीया? अपेक्षाएं, फरमाइशें, ताने और उलाहने। क्या यही उसकी छुट्टी है? क्या वो कुछ ऐसा कर पाई, जो उसके मन का था? क्या उससे किसी ने पूछा कि वो अपनी छुट्टी कैसे मनाना चाहती है? जवाब 'ना' में ही होगा।

एक पत्नी और माँ होने के पहले वह एक इंसान है और इस नाते उसकी भी वही सारी ज़रूरतें हैं, इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं। क्या शेष घर का कर्तव्य नहीं है कि एक इंसान के रूप में भी उसे यथोचित मान दे? यह तो सर्वथा अनुचित है कि उसे सदा कर्तव्य के कटघरे में खड़ा रखा जाये और शेष परिवार हमेशा न्यायाधीश की कुर्सी पर आसीन हो। उसे सिर्फ निर्णय सुनाये जाएँ और उसकी राय भी न ली जाये। अपना सारा कुछ उस पर अभिव्यक्त कर दिया जाये और उसे अनभिव्यक्त ही रह जाने दिया जाये।

छुट्टी या अवकाश उसकी भी नैसर्गिक आवश्यकता है। किसी एक दिन यदि आप उसे चाय बनाकर पिलायें और नाश्ता व भोजन स्वयं बनायें अथवा बाजार से लाएं, तो ये उस पर कदापि अहसान नहीं है। बल्कि ये उसके निकट आपके स्नेह और चिंता को व्यक्त करेगा। उस एक दिन वो गीत सुने या गाए, नृत्य करे या सिनेमा देखे, सखियों के साथ रहे या लिखे-पढ़े।

बस, उस एक दिन वो अपने मन का जी सके-ऐसा सम्भव बनाना आपके हाथों में है। यदि आप ऐसा नही करेंगे, तब भी वह सप्ताह के इस सातवें दिन भी सानंद आपकी छुट्टी को सम्पूर्णता देती रहेगी। लेकिन यदि आप उसे यह एक दिन अहसान समझकर नहीं बल्कि पूरे मन-भाव से देंगे, तो आपका घर स्वर्ग से सुन्दर हो जायेगा क्योंकि तब आपका घर 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' के आद्य भारतीय भाव को आचरण में जी रहा होगा।

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