प्रतिरोध का शोकगीत लिखने से पहले चल दिए रवींद्र

साहित्यकार रवींद्र कालिया नहीं रहे 
 
वरिष्‍ठ साहित्यकार एवं नया ज्ञानोदय के संपादक रहे रवींद्र कालिया का जाना वर्ष 2016 में साहित्य जगत की अशुभ शुरुआत है। खबर मिली है कि वरिष्ठ कथाकार-संपादक रवींद्र कालिया अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्हें लीवर में शिकायत के बाद पिछले दिनों राजधानी दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
हिन्दी साहित्य में रवींद्र कालिया की ख्याति उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक ऐसे बेहतरीन संपादक के रूप में थी जो मरणासन्न पत्रिकाओं को भी नया जीवन दे देते थे। 11 नवम्बर, 1939 को जालंधर में जन्मे रवींद्र कालिया का साहित्य संसार में अवदान विलक्षण है। उनका जाना अपूरणीय क्षति है, उन्हें उनके ही शब्दों में याद करते हुए प्रस्तुत है स्मृति शेष .... 

हिन्दी का वर्चस्‍व बढ़ रहा है: साहित्य और हिन्दी के बारे में उनके विचार थे, 'आजकल साहित्‍य, समाज के आगे चलने वाली मशाल नहीं रही, अब वह समाज से बहुत ज्‍यादा पीछे रहकर लंगड़ाते हुए चल रहा है। लेकिन आज हिन्दी का वर्चस्‍व बढ़ रहा है और इसका भविष्‍य उज्‍ज्‍वल है। आने वाले कल में लोग हिन्दी के अच्‍छे स्‍कूलों के लिए भागेंगे। मेरा सौभाग्‍य है कि हिन्दी के सहारे मैंने पूरी दुनिया की सैर की।
 
रचना प्रक्रिया : अपनी रचना प्रक्रिया पर रवींद्र बताते थे कि मैंने जो कुछ भी लिखा, अपने व्यस्ततम क्षणों में ही लिखा। जितना ज्‍यादा व्‍यस्‍त रहा, उतना ही ज्‍यादा लिखा। अपने प्रशंसकों से वे कहते थे,''अपने आसपास की जिंदगी को जितना अच्‍छा समझ सकेंगे, उतना ही अच्‍छा लिख सकेंगे। वे मानते थे कि अपने समय को जानने के लिए टीनएजर्स को समझना जरूरी है, उनकी ऊर्जा और सोच में समय का सच होता है। 
 
जड़ें खोजने जालंधर गया : रवीन्‍द्र कालिया का इस बात पर प्रबल विश्वास था कि जो बीत जाता है, उसे भूला देना बेहतर है, उसे खोजना अपना समय व्‍यर्थ करना है। लोग जड़ों के पीछे भागते हैं, मैं भी अपनी जड़ें खोजने जालंधर गया, पर वहां इतना कुछ बदल चुका था कि बीते हुए कल के निशान तक नहीं मिले। 
 
स्‍मृतियों में इलाहाबाद : उनकी स्‍मृतियों में इलाहाबाद हमेशा जिंदा रहा, उन्होंने किसी कार्यक्रम में बताया था कि, 'रानी मंडी को मैं आज भी महसूस करता हूं। मैं जब पहली बार इलाहाबाद पहुंचा था तो मेरी जेब में सिर्फ बीस रुपए थे और जानने वाले के नाम पर अश्‍क जी का ही नाम था, वे भी उन दिनों शहर से बाहर थे। कहा जाता था कि जिसे इलाहाबाद ने मान्‍यता दे दी, वह लेखक मान लिया जाता था। इसी शहर ने मुझे ‘पर’ बांधना सिखाया और उड़ना भी। हालांकि यहां सबसे ज्‍यादा कठिन लोग रहते हैं। यहां सबसे ज्‍यादा स्‍पीड ब्रेकर हैं, सड़कों पर और जिंदगी में भी। इस शहर में प्रतिरोध का स्‍वर है। 
 
प्रतिरोध का शोकगीत : रवींद्र के शब्दों में, प्रतिरोध का शोकगीत लिखने का समय आ गया है। जरूरत है उन चेहरों के शिनाख्‍त की जो मुखौटे लगाकर प्रतिरोध करते हैं। साहित्‍यकार होने के नाते मैं भी शर्मिंदा हूं। जो साहित्‍य जिंदगी के बदलाव की तस्‍वीर पेश करता है, वही सच्‍चा साहित्‍य है। 
 
साहित्य अगर समाज को न बदलें तो : उनका मानना था कि यदि हमारा साहित्‍य लेखन समाज को नहीं बदलता है तो वह झक मारने जैसा ही है। प्रेमचंद का लेखन जमीन से जुड़ा था, इसीलिए वह आज भी सबसे ज्‍यादा प्रासंगिक और पठनीय है। मेरी कोशिश रही कि मैं अपने लेखन में समाज से ज्‍यादा जुड़ा रह सकूं। 
 
बचपन में साहित्य और रवींद्र :  अतीत की स्‍मृतियों को सहेजते हुए एक बार उन्‍होंने हिन्दी और लेखन से नाता जोड़ने की दिलचस्‍प दास्‍तां बताई थी। मैंने घर में आने वाले हिन्दी के अखबार में बच्‍चों का कोना के लिए कोई रचना भेजी थी, तब मुझे सलीके से अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। चंद्रकांता संतति जैसी कुछ किताबें लेकर पढ़ना शुरू किया। कुछ लेखकों के नाम समझ में आने लगे। पता चला कि अश्‍क जी जालंधर के हैं तो एक परिचित के माध्‍यम से उनसे मिलना हुआ, साथ में मोहन राकेश भी थे। इस बीच एक बार बहुत हिम्‍मत करके अश्‍क जी का इंटरव्‍यू लेने पहुंचा तो उनका बड़प्‍पन कि उन्‍होंने मुझसे कागज लेकर उस पर सवाल और जवाब दोनों ही लिखकर दे दिए। उनका इंटरव्‍यू साप्‍ताहिक हिंदुस्तान में छपा। 
 
पहली कहानी : सिलसिला शुरू हुआ तो एक गोष्‍ठी में पहली कहानी पढ़ी। साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान और फिर आदर्श पत्रिका में कहानी छपी तो पहचान बनने लगी। परिणाम यह कि जालंधर आने पर एक दिन मोहन राकेश जी मुझे ढूंढते हुए घर तक आ पहुंचे। उन्‍होंने ही मुझे हिन्दी से बीए ऑनर्स करने को कहा। हालांकि मेरी बहनों ने पॉलिटिकल साइंस में पढ़ाई की। शुरूआत में विरोध तो हुआ लेकिन बाद में सब ठीक हो गया। 

धर्मयुग और रवींद्र : रवींद्र कालिया ने अपनी रचना 'ग़ालिब छुटी शराब' में लिखा है कि मोहन राकेश ने अपने मोटे चश्‍मे के भीतर से खास परिचित निगाहों से देखते हुए उनसे पूछा / ‘बम्‍बई जाओगे?' / ‘बम्बई ?' कोई गोष्‍ठी है क्‍या?' / ‘नहीं, ‘धर्मयुग' में।' / ‘धर्मयुग' एक बड़ा नाम था, सहसा विश्‍वास न हुआ। / उन्‍होंने अगले रोज़ घर पर बुलाया और मुझ से सादे काग़ज़ पर ‘धर्मयुग' के लिए एक अर्ज़ी लिखवाई और कुछ ही दिनों में नौकरी ही नहीं, 10 इन्‍क्रीमेंट्‌स भी दिलवा दिए....”
 
 जगजीत सिंह जैसे दोस्‍त : कपूरथला के सरकारी कॉलेज में पहली नौकरी की। आरंभिक दौर में मेरी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में जिस गति से जाती, उसी गति से लौट आती। बाद में वे सभी उन्‍हीं पत्रिकाओं में छपीं, जहां से लौटी थीं। आकाशवाणी में भी कार्यक्रम मिलने लगे जहां जगजीत सिंह जैसे दोस्‍त भी मिले। 
 
ममता जैसी जीवनसंगिनी : दुक्खम्‌-सुक्खम्‌ जैसे उपन्यासों को रचने वाली वृन्दावन में जन्मी विदुषी पत्नी ममता का साथ पाकर वे हमेशा प्रसन्न रहे। 

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