शहीद-ए-आजम भगतसिंह की बहादुरी और क्रांति के किस्से-कहानियों को तो हर कोई जानता है, लेकिन उनका नाम भगतसिंह क्यों पड़ा, इस बारे में शायद बहुत कम लोग जानते हैं।
भारत माँ के इस महान सपूत का नाम उनकी दादी के मुँह से निकले लफ्जों के आधार पर रखा गया था। जिस दिन भगतसिंह का जन्म हुआ, उसी दिन उनके पिता सरदार किशनसिंह और चाचा अजीतसिंह की जेल से रिहाई हुई थी। इस पर उनकी दादी जय कौर के मुँह से निकला 'ए मुंडा ते बड़ा भागाँवाला ए' (यह लड़का तो बड़ा सौभाग्यशाली है)।
शहीद-ए-आजम के पौत्र (भतीजे बाबरसिंह संधु के पुत्र) यादविंदरसिंह संधु ने बताया कि दादी के मुँह से निकले इन अल्फाज के आधार पर घरवालों ने फैसला किया कि भागाँवाला (भाग्यशाली) होने की वजह से लड़के का नाम इन्हीं शब्दों से मिलता-जुलता होना चाहिए, लिहाजा उनका नाम भगतसिंह रख दिया गया।
शहीद-ए-आजम का नाम भगतसिंह रखे जाने के साथ ही नामकरण संस्कार के समय किए गए यज्ञ में उनके दादा सरदार अर्जुनसिंह ने यह संकल्प भी लिया कि वे अपने इस पोते को देश के लिए समर्पित कर देंगे। भगतसिंह का परिवार आर्य समाजी था, इसलिए नामकरण के समय यज्ञ किया गया।
यादविंदर ने बताया कि उन्होंने घर के बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि भगतसिंह बचपन से ही देशभक्ति और आजादी की बातें किया करते थे। यह गुण उन्हें विरासत में मिला था, क्योंकि उनके घर के सभी सदस्य उन दिनों आजादी की लड़ाई में शामिल थे।
उनके अनुसार एक बार सरदार अजीतसिंह ने भगतसिंह से कहा कि अब सब लोग तुम्हें मेरे भतीजे के रूप में जाना करेंगे। इस पर शहीद-ए-आजम ने कहा कि चाचाजी मैं कुछ ऐसा करूँगा कि सब लोग आपको भगतसिंह के चाचा के रूप में जाना करेंगे।
शहीद-ए-आजम का जन्म 1907 में 27 और 28 सितम्बर की रात पंजाब के लायलपुर जिले (वर्तमान में पाकिस्तान का फैसलाबाद) के बांगा गाँव में हुआ था, इसलिए इन दोनों ही तारीखों में उनका जन्मदिन मनाया जाता है।
लाहौर सेंट्रल कॉलेज से शिक्षा ग्रहण करते समय वे आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से शामिल हो गए और अंग्रेजों के खिलाफ कई क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया।
सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के मामले में उन्हें कालापानी की सजा हुई, इसलिए उन्हें अंडमान-निकोबार की सेल्युलर जेल में भेज दिया गया, लेकिन इसी दौरान पुलिस ने सांडर्स हत्याकांड के सबूत जुटा लिए और इस मामले में उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई।
भारत के इस महान क्रांतिकारी को फाँसी 24 मार्च 1931 की सुबह दी जानी थी, लेकिन अंग्रेजों ने बड़े विद्रोह की आशंका से राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को जेल के भीतर चुपचाप निर्धारित तिथि से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 की शाम को ही फाँसी दे दी और उनके पार्थिव शरीर वहाँ से हटा दिए गए।
लाहौर सेंट्रल जेल में भगतसिंह ने 404 पेज की डायरी लिखी, जिसकी मूल प्रति इस समय उनके पौत्र यादविंदर के पास रखी है। भगतसिंह कुल 716 दिन जेल में रहे।
यादविंदर ने बताया कि उनके दादा भगतसिंह की गर्दन पर एक अलग तरह का निशान था, जिसे देखकर एक ज्योतिषी ने कहा था कि बड़ा होकर यह लड़का देश के लिए या तो फाँसी पर चढ़ेगा या फिर नौलखा हार पहनेगा यानी कि अत्यंत धनाढ्य व्यक्ति होगा। ज्योतिषी की पहली बात सही साबित हुई और भगतसिंह को 23 बरस की छोटी-सी उम्र में फाँसी के फंदे पर झूल जाना पड़ा।