आँधियाँ चलती हैं और मेरी रेत के ढूह उडकर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं यही मेरी अनश्वरता है यह दिन चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूँ प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चाताप। वासना और कामना। वसंत और जंगल। मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूँ
शब्द तारों की तरह टूटते हैं वे दिखते हैं अंतरिक्ष में गुम होते हुए चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूँ किसी ब्लैकहोल में से और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूँ :
प्रेम मुझे नष्ट कर चुका है प्रेम ने ही दिया था मुझे जन्म प्रेमजन्य यही शरीर है अलौकिक इसी में खिलते हैं संसार के फूल और झरते हैं बहती है नीली नदियाँ और वाष्पित होती हैं जो मिलती हैं समुद्रों में फिर गिरती है बारिश के साथ यहीं है उतना निर्जन जो अनिवार्य है सृष्टि के लिए इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियाँ पुकार है और चुप्पियाँ यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है
यहीं खुशियाँ घेर लेती हैं और एक दिन बदल जाती है बुखार में
यह सूर्यास्त की तस्वीर है देखने वाला इसे सूर्यौदय की भी समझ सकता है प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं जहाँ से थाम लो वहीं शुरूआत जहाँ छोड़ दो वहीं अंत
रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह इस छोर से उस छोर तक फैली है रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट हर कोई इसी जन्म में अपना प्रेम चाहता है कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण आविष्कृत होती हैं इसीलिए सारी चेष्टाएँ, संकेत और भाषाएँ
चारों तरफ चपल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी यहाँ पानी चाँदनी की तरह चमकता है और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक जो छूट गया, जो दूर है, अलभ्य है जो वही प्रेम है
जो इसे झूठ समझते हैं उन्हें अभी कुछ और प्रतीक्षा करना चाहिए।