प्रभुजी तुम चंदन, हम पानी। ऐसी थी उनकी विनम्रता। हिन्दी साहित्य जगत को अपने ललित निबंधों की चंदन-सी खुशबू से महकाने वाले पंडित विद्यानिवास मिश्र ने खुद को हमेशा पानी माना और कागज की शिला पर अपनी कलम को चंदन की तरह घिसते रहने वाला विनम्रता एवं विद्वता का यह वट वृक्ष आज हमारे बीच नहीं है।
'हवा का यह बुलबुला, एक दिन फूट जाएगा' इस सच्चाई को पंडितजी से बढ़कर और कौन जान सकता है, लेकिन यह चरम सत्य किसी सड़क दुर्घटना के रूप में सामने आने की किसी ने कल्पना नहीं की थी। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद अगर कोई शख्स ललित निबंधों को वांछित ऊँचाइयों पर ले गया तो हिन्दी जगत में डॉ. विद्यानिवास मिश्र का ही जिक्र होता है।
संस्कृत के प्रकांड विद्वान, जाने-माने भाषाविद् और सफल संपादक, पद्मविभूषण पं. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी 1925 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के पकडडीहा गाँव में हुआ था। वाराणसी और गोरखपुर में शिक्षा प्राप्त करने वाले श्री मिश्र ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से वर्ष 1960-61 में पाणिनी की व्याकरण पर डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की थी।
उन्होंने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में भी शोध कार्य किया था तथा वर्ष 1967-68 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे थे। म.प्र. में भी सेवारत रहे कुछ समय के लिए। मध्यप्रदेश में सूचना विभाग में कार्यरत रहने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। वे 1968 से 1977 तक वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे। कुछ वर्ष बाद वे इसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। उनकी उपलब्धियों की लंबी श्रंखला है। लेकिन वे हमेशा अपनी कोमल भावाभिव्यक्ति के कारण सराहे गए हैं। उनके ललित निबंधों की महक साहित्य- जगत में सदैव बनी रहेगी।