पं. सूर्यनारायण व्यास : अद्वितीय व्यक्तित्व

राजशेखर व्यास
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बचपन में रविबाबू (रवीन्द्रनाथ टैगोर) की एक कविता सुनी थी ' सकल वर्ग दूर करि दिवो, तोमार गरब छोड़िबे ना, सँवारे डाकिया कहिबे जे दिन, पावे तब पद रेणुकणा' मैं अपना और सब गर्व छोड़ सकता हूँ, सारे गर्व छोड़ सकता हूँ, लेकिन जो गर्व तुम्हारे लिए है वह मैं कभी नहीं छोड़ पाऊँगा और जिस दिन मुझे तुम्हारे चरणरज की धूलि के सौंवे कण का भी हिस्सा मिल गया तो उसे अपने मस्तक पर धारण कर सारी दुनिया को उसे अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि बताऊँगा।'

सूर्य को दीपक दिखाना या करछूल से सागर नापने का प्रयास हो भी तो वह एक सूक्ष्म उदाहरण ही होगा। पंडितजी के विषय में बात करने का मन हो तो कौन से पंडितजी, इतिहासकार पंडितजी?, पुरातत्वेता पंडितजी?, क्रांतिकारी पंडित सूर्यनारायण व्यास?, विक्रम के सम्पादक पं. सूर्यनारायण व्यास ?ज्योतिष और खगोल के अपने युग के असाधारण सर्वोच्च न्यायालय और 'सूर्य' पं. सूर्यनारायण व्यास?, किसके बारे में बात करें?

उज्जैन के सिंहपुरी मोहल्ले के एक तिमंजिला भवन में 2 मार्च, 1902, प्रातः स्मरणीय महामहोपाध्य पं. नारायणजी व्यास के घर में पं. सूर्यनारायण व्यास का जन्म हुआ। पं. नारायणजी व्यास की एक परम्परा थी महर्षि सांदीपनी की, मैं नहीं जानता वह सत्य थी या नहीं। डॉ. विष्णुधरजी ने लिखा है कि वह परम्परा ऐसी रही कि उसे विश्वविद्यालय बनाकर व्यासजी ने उसे स्थापित कर दिया।

उसी सांदीपनी वंश के महर्षि नारायणजी व्यास जिनके बारे में किंवदन्तियॉं हैं, कथाएँ हैं, कुछ ऐतिहासिक सत्य हैं। वे दोनों हाथों से एक-समय में एक-साथ लिखते थे। एक हाथ से व्याकरण एक हाथ से ज्योतिष और दोनों एक समय में। संस्कृत और ज्योतिष के अपने समय के असाधारण व्यक्तित्व लोकमान्य तिलक एवं मदनमोहन मालवीय, पंडितजी के दर्शन करने यहाँ पधारे। यह मैंने 'सम्मेलन पत्रिका' के 'मालवीय विशेषांक' में पढ़ा था। मालवीयजी महाराज दो बार उनके दर्शन करने यहाँ नारायणजी के पास आए।

उनका परम उद्देश्य था खगोलिय गणना सीखना। ऐसे असाधारण पुरुष के घर में 2 मार्च, 1902 में सिंहपुरी मोहल्ले की छोटी-सी गली में स्थित एक मकान में पं. सूर्यनारायण व्यास का जन्म हैरत में डालता है। बाद के दिनों में राजेन्द्र माथुर के ये शब्द - 'विक्रम' के सम्पादक पद पर मालवा का चिंतक, लेखक, अरब, इराक, मलेशिया, साइप्रस तो छोड़िए 'बोल्शेविक क्रांति' पर लिखता है।

सिंहपुरी में जन्मा एक नौजवान रास्पुतिन पर काम करता है। मैं कई बार सोचता हूँ कि ऐसा क्यों हुआ? शायद वह पूरा दौर, वो पूरी पीढ़ी क्रांतिकारियों की पीढ़ी थी। पं. सूर्यनारायण व्यास 18 बरस के रहे होंगे, प्रभाकर क्षोत्रिय को यह जानकारी शायद अच्छी लगे, मुझे भी विस्मयजनक लगी थी। 'माधव कॉलेज' की पत्रिका में उनकी पहली रचना 'शारदोत्सव' मराठी में छपी थी 1916 में।

उससे पूर्व उर्दू के एक शायर पं. सूर्यनारायण व्यास की 'शम्स उज्जयिनी' के नाम से लिखी हुई आरंभिक काल की रचना मिलींयानी उनके लेखन का यह काल 1914 तक जाएगा। मैं नहीं जानता कि वे कब से लिख रहे होंगे। 1918 से तो प्रमाणिक रूप से उनके लेख तमाम पत्र-पत्रिकाओं में मिलते हैं।

'सिद्धनाथ माधव आगरकर' का साहचर्य जिन्हें मिला हो, 'तिलक' की जीवनी का अनुवाद करने का सौभाग्य उन्हें आगरकरजी के साथ मिला। सिद्धनाथ माधव आगरकर को बहुत लोग अब भूल गए होंगे । 'स्वराज्य' संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी के साथ 'कर्मवीर' संपादक, पंडितजी का उन्हें साहचर्य मिला। पंडितजी पर उनका असर था या उनका पंडितजी पर असर, कहिए कि पंडितजी पत्रकारिता की ओर मुड़े।

तिलक की जीवनी का अनुवाद करते-करते वे क्रांतिकारी बने। वीर सावरकर का साहित्य पढ़ा। सावरकर का साहित्य पढ़ते-पढ़ते पंडितजी को, 'अंडमान की गूँज' ने बहुत प्रभावित किया। प्रणवीर पुस्तक माला की पुस्तकें वे बॉंटा करते थे और 1920-21 के काल से तो मुझे उनकी क्रांतिकारी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं, जिनसे जाहिर होता है कि पं. सूर्यनारायण व्यास 1930 में 'अजमेर सत्याग्रह' में पिकेटिंग करने भी पहुँचे थे। उज्जैन के जत्थों का नेतृत्व भी किया। अजमेर में 'लार्ड मेयो' का स्टेचू तोड़ा। सुभाष बाबू का आह्नान था कि विदेशी राजनेताओं के स्टेचू तोड़ दिए जाए। लार्ड मेयो का स्टेचू तोड़कर उसका एक हाथ बरसों तक उज्जैन में उनके निवास 'भारती भवन' में रखा रहा। क्रांतिकारी सूर्यनारायण व्यास कैसे अपनी यात्राओं से यहाँ पहुँचे होंगे। इसे संक्षेप में बताना संभव नहीं लेकिन मैं बहुत सूक्ष्म रूप से बात कहूँ तो एक सशक्त क्रांति में हिस्सा लेने के लिए वे 1942 में गुप्त रेडियो स्टेशन भी चलाते थे।

सन्‌ 1930-35 में उनकी पहली विदेश यात्रा के विषय में बहुत कम लोग जानते हैं। 'यात्रा-साहित्य' के आरंभिक लेखकों में अब लोग राहुल सांकृत्यायन और भगवतशरण उपाध्याय का नाम लेते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि पं. सूर्यनारायण व्यास की यात्रा-साहित्य पर पहली कृति 'सागर-प्रवास' 1937 में बिहार के लहरिया सराय से आचार्य शिवपूजन सहाय के माध्यम से हिन्दी, मराठी, संस्कृत भाषा में छपी थी। वे यूरोप की यात्रा पर भी गए।

यूरोप जाने से पूर्व वे महाकाल-मंदिर और भारती-भवन में कालिदास जयंती 1928 से मना रहे थे। वे सारे संस्मरण मिलते हैं। यूरोप में जगह-जगह उनसे पूछा जाता रहा होगा कि क्या उज्जैन में कालिदास का कोई स्मारक है? आप वहाँ रहते हैं।

मन में शर्मिंदगी आती होगी और पंडितजी के स्वाभिमान को कोई पीड़ा या चोट लगी होगी लेकिन मैं प्रायः जब कालिदास समारोह के बारे में अखबारों में पढ़ता हूँ, भाषण सुनता हूँ। मुझे एक बात पर बराबर हैरत होती है कि किसी ने पं. सूर्यनारायण व्यास के उस विजन को पकड़ने, दृष्टा की उस दृष्टि को पकड़ने की अब तक कोशिश क्यों नहीं की? जिस पर मैं बराबर कोशिश कर रहा हूँ।

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मुझे लगता है महर्षि अरविंद, महर्षि रमण की तरह पं. सूर्यनारायण व्यास अपने युग के बहुत बड़े दार्शनिक-दृष्‍टा थे। वे ज्योतिष के महान विद्वान थे। उन्हें मालूम था कि देश तो आजाद होगा ही आजादी के बाद भी मानसिक रूप से हम मुक्त नहीं होंगे क्योंकि हमारे सारे राजनेता पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित और प्रेरित थे। सब-के-सब राजनेता विदेशों में पढ़कर आए थे।

सन्‌ 1930 में पं. सूर्यनारायण व्यास ने 'आज' में घोषणा की कि 1947 में 15 अगस्त को देष आजाद होगा। यह छपा हुआ लेख आज भी उपलब्ध है। अर्द्धरात्रि का मुहूर्त भी उनका निकाला हुआ है। सर स्टेफोर्ड क्रिप्स का लिखा हुआ आलेख है -'हू डजन्ट कन्सल दी स्टार्स?' लेख में उन्होंने लिखा है कि देश की आजादी का मुहूर्त एक व्यक्ति से निकलवाया गया। अर्द्धरात्रि का मुहूर्त सूर्यनारायण व्यास से निकालवाया गया।

हमें बरसों से पढ़ाया जाता रहा है कि हम मुगलों, अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं। शोषित, पीड़ित, पराभूत। पाठ्य-पुस्तकों में पढ़ाया जाता रहा है कि हम 1857 के गदर में हारे हुए, थके हुए, जुआरी हैं। पं. सूर्यनारायण व्यास ने इतिहास से एक चरित्र निकाला विक्रम सहस्रताब्दी के अवसर पर, 57 वर्ष ईसा पूर्व 'विक्रम' नामक चरित्र हमारे यहाँ मौजूद है जिसके पराक्रम ने ईरान, इराक, अरब और शकों और हूणों को परास्त किया।

वह है चक्रवर्ती सम्राट 'विक्रम' जिसने अरब क्षेत्र तक अपने शासन और सत्ता को फैलाया। सोए हुए राष्ट्र को जगाने के लिए, उस विक्रम के पराक्रम का आह्नान देने के लिए सूर्यनारायण व्यास ने 1942 में 'विक्रम-पत्र' की स्थापना की। पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' जैसी क्रांतिकारी हस्ती उनके साथ थी। उस युग के पत्रकार, जो घर में ही बैठकर एक-दूसरे के खिलाफ लिखने का, जैसे मार्डन रिव्यू में रामानंद चट्टोपाध्याय के घर में लिखने का, लोग साहस रखते थे।

उस 'विक्रम-पत्र' से व्यासजी ने जीवन में 'विक्रम विश्वविद्यालय' की स्थापना का संकल्प लिया। 'विक्रमकीर्ति मंदिर', 'कालिदास समारोह' और 'विक्रम स्मृति ग्रंथ'। मेरा ख्याल है जैसे महाभारत के बारे में कहा जाता है कि जो कुछ महाभारत में है वह भारत में है और जो महाभारत में नहीं है वह भारत में नहीं है। मुझे लगता है कालिदास, उज्जयिनी और विक्रम के बारे में, ऐसा अद्भुत ग्रंथ मेरे जीवन में अभी तक देखने में नहीं आया। हिन्दी, मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी में इतना अद्भुत काम, क्या आप इसे अतिश्योक्ति मान सकते हैं?

लेकिन मैं बहुत विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ मैं पन्त, निराला, बच्चन, सुमन न केवल उनका बल्कि सारी पीढ़ी की चरण-रज को माथे पर लगाने वाला पौधा हूँ लेकिन मैं इतना कहना चाहता हूँ कि लिख देना बहुत आसान है लेकिन उसे अपने जीवन में चरितार्थ करना मुश्किल है। सपने सॅँजो लेना बड़ी बात नहीं, सपनों को अपने जीवनकाल में चरितार्थ कर देना बड़ी बात है। उसे अपने जीवन में उतार लेना ये किसी विलक्षण साहित्यकार की तपस्या है।

मैंने तो अपने जीवन में अभी तक नहीं देखा जिसने न केवल विक्रम, कालिदास पर लिखा हो, उसे जिया हो, अपने जीवनकाल में उसे स्थापित किया हो। विक्रमकीर्ति मंदिर, विक्रम विश्वविद्यालय खड़ा कर दिया हो, इतनी विनम्रता से, इतनी सादगी से कि कहीं नाम तक नहीं, कहीं नाम का उल्लेख नहीं? असाधारण तपस्या, असाधारण साधना और असाधारण अंतप्रेरणा से ही, मेरा ख्याल है पं. सूर्यनारायण व्यास जन्मता होगा।

पं. सूर्यनारायण व्यास को 'पद्मभूषण' मिला 1958 में। उन्होंने उस लौटा दिया, अंग्रेजी को जारी रखने के विरोध में। हिन्दी का समर्थन करने वाले जितने लोग आज इसको याद करते हैं। लोहियाजी ने 'अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन चलाया उससे पूर्व पंडितजी ने यह काम पहले ही कर दिखाया।

मैं डॉ.शंकरदयाल शर्माजी के निकट सम्पर्क में रहा हूँ। उन्होंने एक बार एक बात बताई कि -'पंडित व्यास मालवा को, उज्जैन की राजधानी बनाना चाहते थे। राजशेखर ! हमारी उनसे बड़ी लड़ाई हुई, बैर हुआ। हम जवाहरलाल के खेमें में थे और पंडितजी राजेन्द्र प्रसाद के मित्र थ । जब व्यासजी को राजधानी नहीं मिली तो वे विश्वविद्यालय ले आए। इंदौर और भोपाल में विश्वविद्यालय नहीं था। मुझे लगता है व्यासजी जानते थे कि इस नगर के नौजवान पढ़-लिख लेंगे तो अपने हक की लड़ाई तो वे खुद ही लड़ लेंगे।'

मुझे लगता है कि एक व्यक्ति को निष्पक्ष होकर देखना चाहिए। उसके बोए हुए बीजों को, उसके सामर्थ्य को, उसकी पूजा को, उसकी प्रतिज्ञा को, उसके त्याग को, उसके समर्पण को पूरे अर्थों में देखा जाना चाहिए।

उनके 300 व्यंग्य लेख मेरे पास हैं । वे अनेक नामों से लिखते थे। जैसे -चक्रधर, शरण, व्यासाचार्य। लेकिन हैरत की बात है कि उन्होंने अपनी मौत पर व्यंग्य लिखा - 'आँखों देखी अपनी मौत', यह 22 जून, 1965 में छपा । 22 जून को ही उनका देहावसान हुआ, 22 जून, 1976 को। उन्होंने 'मूर्ति का मसला' लिखा। उन्हें मालूम था मेरे मरने के बाद मेरी प्रतिमा को लेकर उज्जैन में निम्नस्तरीय बहस होगी। यहॉं जीवित लोग अपनी प्रतिमा लगवा लेंगे मगर उनकी प्रतिमा न लगने दी जाएगी, न लगाई जाएगी।

ज्योतिष-जगत के वे सूर्य थे। देष की आजादी का मुहूर्त उन्होंने निकाला। 1924 में बनारस में 'आज' में एक लेख छपा। उसमें उन्होंने लिखा है -गाँधी मरेंगे नहीं मारे जाएँगे' लेख के अंत में वे लिखते हैं - 'गाँधी वध एक ब्राह्मण द्वारा होगा।' यह लेख सुरक्षित है । 1930 में एक लेख टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा। उसमें उन्होंने लिखा - 'नेहरू भारत का भावी लेनिन होगा।' 1930 के बाद नेहरू कैसे रहेंगे? उनकी पत्नी का देहावसान कब होगा? वे विश्व इतिहास पर कब लिखेंगे ? टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक श्री जी. एस. करंदीकर ने व्यासजी को 'जीवित विश्वकोष' कहा था।

मैं तो केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि वह दौर दूसरा था जब लोग अपना घर खाली करके समाज को भरते थे। सूर्यनारायण व्यास ने अपना घर खाली करके समाज को भरा। आज लोग समाज को खाली करके अपना घर भर रहे हैं। मुझे याद आती है मेरी माँ श्रीमती विजयलक्ष्मी व्यास की। वे न होती तो पं. सूर्यनारायण व्यास शायद घर खाली न कर पाते।

वे घर खाली करने में बराबर मदद करती रही। इसलिए श्रीमती विजयलक्ष्मी व्यास न होती तो पं. सूर्यनारायण व्यास न होते। मैं तो उनके सान्निध्य में केवल चार बरस रहा। जब वह युग का 'जीनियस' अपनी याददाश्त खो बैठा तो मैं उन्हें अखबार पढ़कर सुनाता था। मैं तो साइंस का विद्यार्थी था। चुम्बक में कोई स्पर्शीय शक्ति होती है, जिसे लोहे पर घिसने से वह भी चुम्बक बन जाता है।

'चंदन की छाया में कुछ दिन रहने का सौभाग्य मिला था,
दुनिया समझ रही मुझको मैं भी मलियानील हूँ, चंदन हूँ।'

उर्दू के लहजे में कहूँ तो '

'ये तुम्हारा नूर है जो पड़ रहा है मेरे चेहरे पर
वरना कौन देखता इस अंधेरे में मुझे?'

लेखक राजशेखर व्यास, पं. सूर्यनारायण व्यास के सुपुत्र हैं।

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