आज सारा देश ही 'शिवपालगंज' है

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017 (17:52 IST)
नई दिल्ली। हमारे देश में व्यंग्य में उपन्यास लिखने की समृद्ध परम्परा नहीं रही है लेकिन जो थोड़े से उपन्यास व्यंग्य उपन्यास  लिखे गए हैं, उनमें से एक 'रागदरबारी' को ज्यादातर लोगों ने पढ़ रखा होगा। 

राज्य शिक्षा प्रशासन में एक एक अधिकारी रहने वाले लेखक श्रीलाल शुक्ल ने सरकार से अनुमति लेकर इसे प्रकाशित कराया था। श्रीलाल शुक्ल ने वैसे कई उपन्यास और रचनाएं लिखीं हैं लेकिन रागदरबारी उनका सबसे सफल और चर्चित उपन्यास रहा। यह उपन्यास अपने व्यंग्य के साथ स्वतंत्रता के बाद आजाद भारत की असली तस्वीर पेश करता है।

इस उपन्यास का केन्द्र बिंदु एक कस्बा 'शिवपालगंज' है जोकि आज भी कई मायनों में लखनऊ के पास मोहनलालगंज की असली तस्वीर पेश करता है। राग दरबारी मात्र व्यंग्य-कथा नहीं है। इसमें श्रीलाल शुक्ल जी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ कर रख दिया है। राग दरबारी की कथा भूमि एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे गांव शिवपालगंज की है जहां की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आघातों के सामने घिसट रही है।

शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात वह राजनीतिक संस्कृति हैं जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर फल फूल रही हैं। इस उपन्यास में व्यवस्था की खामियों को जिस तरह दिखाया गया है वह अद्भुत है। आजाद भारत का ग्रामीण समाज किस करवट मोड़ ले रहा है या यूं कहें पूरा भारत किस दिशा में जा रहा है, यह रागदरबारी को पढ़कर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। एक प्रशासनिक अधिकारी या कहें कि एक दरबारी द्वारा खुद उस दरबार पर व्यंग्य है जिसका वह हिस्सा था।
 
रागदरबारी जैसा उपन्यास लिखकर व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने वाला यह लेखक बाद में खुद व्यवस्था के शीर्ष पर भी पहुंचा। जब वीपी सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब श्रीलाल शुक्ल उनके सचिव थे। लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने लिखना कभी बंद नहीं किया। प्रशासन और व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचकर उसी व्यवस्था की कलई खोलते रचनाएं लिखना बहुत ही साहस का काम होता है। यह इस वजह से भी साहस का काम है क्योंकि व्यवस्था पर व्यंग्य करना ऐसे व्यक्ति के लिए खुद के ऊपर भी किया गया व्यंग्य माना जाता है। अपने ऊपर व्यंग्य करने का साहस बहुत ही कम साहित्यकारों ने किया है।
 
रागदरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने सबसे अधिक करारा व्यंग्य हमारी शिक्षा-व्यवस्था पर किया है। हमारी शिक्षा-प्रणाली में अंग्रेजी को कुछ अधिक ही महत्व दिया जाता है। रागदरबारी में एक जगह श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं कि ‘हृदय परिवर्तन के लिए रौब की जरूरत होती है और रौब के लिए अंग्रेजी की।’ इसी तरह हमारे विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध की हालत पर वे लिखते हैं- ‘कहा तो घास खोद रहा हूं अंग्रेजी में इसे ही रिसर्च कहते हैं।’ समूचे उपन्यास में ऐसे बहुत सारे प्रसंग हैं जोकि छद्ध बुद्धिजीवियों और उनकी सतही समझ की पोल खोलते हैं। पर जिस उद्देश्य से कृति लिखी गई होगी उसका शतांश असर भी हमारी सोच और समझ पर नहीं दिखाई देता है। अगर कुछ है तो यही कि अगर आपको रागदरबारी के 'शिवपालगंज' से साक्षात्कार करना हो, इसके लिए आज का भारत ही पर्याप्त है।
- पुस्तक के बहाने एक टिप्पणी।
 

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