पं. विद्यानिवास मिश्र : 14 जनवरी, देह का स्मृति उत्सव है, पर वे आज भी दिवंगत नहीं हुए

मृत्यु जीवन का बन्धन है। मृत्यु पंचभूती देह की होती है। अक्षर,यश और स्मृति की काया सच्ची काया है जिसमें समाया जीवन अमर होता है और यही जीवन भौतिक देह के विलीन होने के बाद भी कालतीत बना रहता है। यह जीवन भौतिक देह के मरण को अक्षर,यश और स्मृति के बन्धन से कभी मुक्त नहीं करता। इसीलिये मैं श्रद्धेय विद्यानिवास मिश्र को कभी स्वर्गीय नहीं कहता,कम से कम मेरे लिए वे दिवंगत नहीं हुए।
उनकी अक्षर काया अपूर्व है,यश काया अपरिमित और स्मृति काया अमर।
 
आज 14 जनवरी को उनकी इसी अमर देह का स्मृति उत्सव है। वे इसी दिन गोरखपुर के निकट पकड़डीहा नामक ग्राम में वर्ष 1926 को जन्मे थे।उनकी भौतिक देह के विलीन होने तक की उनकी उपलब्धियों का विस्तृत लेखा जोखा है। साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता,भारत भारती,पद्मश्री और पद्मभूषण से लेकर जाने कितने सम्मान उन्हें मिले या यों कहें कि ये सम्मान स्वयं सम्मानित हुए, अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय से लेकर सम्पूर्णानंद  संस्कृत विश्वविद्यालय में उन्होंने पढ़ाया जहां बाद में वे उपकुलपति रहे।विन्ध्यप्रदेश के सूचना विभाग के प्रमुख से लेकर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के निदेशक और नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक तक उनकी उपलब्धियों का अटूट सिलसिला है।
 
लेकिन वे जीवन्त हैं अपने सृजन में उनकी 100 से अधिक कृतियां हैं। ये ललित निबन्ध,कला,दर्शन और लोक से लेकर तन्त्र और व्याकरण तक की परिधि में हैं। हिन्दी,अंग्रेज़ी तथा संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में हैं। इनमें छितवन की छाँह, तमाल के झरोखे से और मेरे राम का मुकुट भीग रहा है जैसी ललित निबन्ध की कृतियां हैं तो राग बोध और रस तथा स्वरूप विमर्श जैसी भारतीय कला पर केन्द्रित कृतियां भी हैं।इनमें तन्त्र कला और आस्वाद जैसी तन्त्र की व्याख्या करने वाली कृति है तो पाणिनी की व्याकरण की तकनीक को समझाने वाला शोध ग्रन्थ भी। 
 
इस फेहरिस्त में वाल्मीकि, कालिदास,तुलसी और जयदेव  से लेक डॉक्टर आंनद कुमार  स्वामी सहित साहित्य ,संस्कृति और कला के महान सर्जकों पर व्याख्यान हैं ,अनुवाद हैं,स्पेन के विद्वान् डॉक्टर राफेल आर्गुलाई से भारतीय और पाश्चिम की संस्कृति को लेकर हुआ संवाद भी है तो रहीम से लेकर कबीर तक की वे ग्रंथावलियां हैं जिनका उन्होंने सम्पादन किया।इनमें गीत गोविन्द की आध्यात्मिक व्याख्या है तो सपने कहां गये जैसे संस्मरण भी और हिन्दी की शब्द सम्पदा जैसी हमारी भाषा की समृद्धि का आख्यान करने वाले ग्रन्थ भी। 
 
वे हमेशा अपने अधूरेपन को रेखांकित करते और कहते कि मुझे बहुत से ऋण चुकाना है। साहित्य में ऐसा अपने ऋणों को लेकर सचेत कृतिकार कोई दूसरा नहीं जिसे तुलसी से लेकर जयदेव तक का ऋण उतारने की चिन्ता हो।
 
मैं उन्हें रसपुरुष कहता हूं इसलिये कि उन्होंने अपना ज्ञान रस अपनी समग्रता में लोक से लिया और पूरी आत्मीयता के साथ लोक में ही बांट दिया। मेरी कृति"रस पुरुष पण्डित विद्यानिवास मिश्र" में मैंने विस्तार से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पक्ष को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। 
 
मुझे सौभाग्य मिला कि मैं उनका निकट सान्निध्य पा सकूं,उनका आशीर्वाद ले सकूं , उनसे कुछ अर्जित कर सकूं और मुझे उन्होंने खूब असीसा भी।मेरे पूरे परिवार को उनका भरपूर सान्निध्य और आशीर्वाद मिला। 
 
उनकी उदारता अदभुत थी।अटलजी के वे परम मित्र रहे, 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में साथ साथ भाग कर छुपे और स्वतन्त्रता आन्दोलन में हिस्सा लिया,आई सी एस का मोह छोड़कर राहुलजी के सहायक हो गए, रफी अहमद किदवई और बालकृष्ण शर्मा "नवीन" उनके निकट साथी रहे तो स्वामी अखण्डानन्द और करपात्री महाराज का सामीप्य और स्नेह उन्हें सदैव मिला।उन्होंने धूमिल की कविताओं और प्रेमचन्द की कहानियों के संग्रहों पर लिखा।नागार्जुन और डॉक्टर लोहिया उनके घर ठहरते रहे और नामवरजी के परिवार में और उनके परिवार में गहरी आत्मीयता रही और है जिसे नामवरजी के अनुज काशीनाथजी आज भी निबाहते हैं। अज्ञेय उन्हें अनुज मानते, कपिलाजी उन्हें अपूर्व आदर देतीं और अशोक वाजपेयीजी जैसे सर्जक उनकी मनीषा का सदैव सम्मान करते।
 
वे आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदीजी के बाद हमारी आर्ष परम्परा के इकलौते प्रतिमान थे,हमारे सांस्कृतिक और कलात्मक मूल्यों के अडिग विश्वास और भारतीयता की सच्ची अस्मिता को अपने में आत्मसात कर लेने वाले यौगिक। उनका चरित्र मिश्रण का चरित्र नहीं था किजिसके तत्त्वों को अलग आलग किया जा  सके। 
 
उनके लिखे को पढ़कर और बोले को सुनकर इस महान देश की देशज वैज्ञानिक धरोहर के प्रति आश्वस्ति मिल जाती है। उन्हें अधिकतर ललित निबंधकार के रूप में सीमित कर दिया जाता है जबकि वे भारतीय लोक,कला और संस्कृति के महनीय मनीषी थे।भारतीय लघुचित्र परम्परा और कलादर्शन से लेकर खजुराहो के शिल्प और संगीत से लेकर नृत्य की परम्परा तक को उनकी लेखनी ने अपनी परिधि में समेटा था। उन्होंने सूत्र लिखे, शब्दजाल नहीं रचा। 
आज की समकालीन प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए उन्होंने लिखा "हम टिकाऊपन को ही उपयोगिता की सबसे बड़ी परिभाषा मानते हैं और उपयोगिता को ही साहित्य के प्राण "
 
अपने निबन्ध 'साँझ भई' में वे लिखते हैं,"तृप्ति की उत्कर्ष भूमि पर हम पहुंचे तो वितृप्ति का ढाल शुरु हो गया।हृदय के अरमान मोती बन पाए नहीं कि ओस बन कर ढुलक पड़े। और दिवस का भी क्या दोष?जब यह ढलने लगा तब सन्ध्या को अपना अनुराग ढालने की सूझी , जब वह रास्ते पर पैर रख चुका तभी उसे मनुहार करने की सुधि आई। यही तो युगों युगों का क्रम है।जिसे तुम पैरों से ठुकराते हो,वह तुम्हारे पैर छान कर बैठा रहता है और जिसे तुम पैर पड़कर मनाते हो वह तुम्हारी ओर दृष्टिपात भी नहीं करता "
 
आज को लक्ष्य कर उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध निबन्ध 'मेरे राम का मुकुट भींग रहा है ' में लिखा "कितनी अयोध्याएं बसीं,उजड़ीं पर निर्वासित राम की असली राजधानी,जंगल का रास्ता अपने कांटों, कुशों कंकड़ों ,पत्थरों की वैसी ही ताजा चुभन लिए हुए बरकरार है क्योंकि जिनका आसरा साधारण गंवार आदमी भी लगा सकता है वे राम तो सदा निर्वासित ही रहेंगे"
 
उनका अछोर कृतित्व उस क्षितिज की तरह है जिस पर उदित हुए इन्द्रधनुष की सतरंगी आभा को निहारा तो जा सकता है लेकिन उस क्षितिज के विस्तार को मापा नहीं जा सकता।
 
बहुत कुछ है उनके बारे में लिखने को, कहने को और उससे कहीं बहुत अधिक छूट जाना है अनकहा। उनके स्मृति उत्सव पर इसी अनकहे को न कह पाने का यह सन्तोष भी है कि यह पूंजी मानस कोष में सुरक्षित है और भले बिखरी हो लेकिन इसे समेटा जा सकता है।
 
उन्होंने एक बार सूत्र रूप मे हमारे संस्कार का सत्व स्पष्ट करते हुए कहा"ज्ञान की परिणति संवाद है।अदभुत वाक्य है! ज्ञानी या तो मौन हो जाता है या इतना वाचाल कि वह किसी को सुनता ही नहीं।लेकिन ज्ञान तो वह जो संवाद का पुल बना दे। जिस पर आना भी हो और जाना भी पंडित जी वास्तव में पुल ही हैं।ऐसे सेतु पुरुष जिनमें संवाद कभी विराम नहीं लेता।वे सदैव आपसे बातें करते हैं। आप उनको सुनते हो और वे आपको।भौतिक देह कहीं बीच में होती ही नहीं और न ही उसकी कोई आवश्यकता होती है। इसीलिए पंडितजी को मैं कभी दिवंगत नहीं मानता।

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