कोई हमदम ना रहा, कोई सहारा ना रहा

सुशोभित सक्तावत
सन् 1961 की फ़िल्म "झुमरू" का यह गीत है। हम सभी का बारहा-हज़ारहा सुना हुआ गाना : "कोई हमदम ना रहा/ कोई सहारा ना रहा।" इस फ़िल्म की कहानी किशोर कुमार ने लिखी थी। फ़िल्म के नायक भी वे ही थे। गीत भी उन्होंने लिखे, संगीत भी उन्होंने रचा, गीतों को गाया भी उन्होंने ही। हंसते-खिलखिलाते, फिर हठात उदास हो जाते किशोर कुमार छप्पन साल पहले दिल्लगी में ही वो सब कर गुज़रे थे, जिसके आसपास भी अब कोई नहीं फटक सकता है। वो एक उल्कापिंड की तरह हमारे बहुत पास से गुज़रा और हमें छूकर निकल गया। हम देर तलक फिर सोचते रहे कि जो हुआ वह कैसे हुआ था, यह किशोर कुमार का तिलिस्म है।
 
हल्के-फुल्के मूड वाली इस फ़िल्म में उदास रंगत का यह एक नग़मा है। जैसा कि तब कि फ़िल्मों में होता था कि उनमें ख़ुशी और ग़म के नग़मे "स्टॉक सिचुएशन्स" रचकर "सुपरइम्पोज़" किए जाते थे। लिहाज़ा, फ़िल्म तो "रोमैंटिक कॉमेडी" थी, लेकिन उसमें टूटे हुए दिल की यह टेर किशोर कुमार ने रच दी। गाना गाया, गाकर भूल गए, लेकिन वजूद की छाती में कांटे की तरह यह गाना टूटकर रह गया। यह किशोर के शीर्ष गीतों में शुमार किया जा सकता है। इस गाने का "स्कोप" इतना व्यापक है कि क्या कहें, तब उसके आत्महंता उत्तर प्रभाव ("आफ़्टर टेस्ट") की बात तो रहने ही दें।
 
गाने को ग़ौर से देखने-सुनने पर हम पाते हैं कि इसमें जिस एक केंद्रीय तत्व का निर्वाह करने की कोशिश किशोर कुमार ने की है, वह है "डिसओरिएंटेशन" का "मोटिफ़"। और गीत का फ़िल्मांकन देखकर तो मुझे यक़ीन हो जाता है किशोर का हस्तक्षेप उसमें भी रहा होगा। "डिसओरिएंटेशन" का "मोटिफ़" यह है कि टूटे दिल का एक शख़्स कोहरों के भीतर चला जा रहा है, जलती शमअ की तरह। किस दिशा उसको जाना है, मालूम नहीं। क्यों वह चला जा रहा है, इसका भी ख़याल नहीं। बस ये कि एक जगह रुकना अब मुमकिन नहीं है और ये दिल की बेकली है जो रेत के बगूलों की तरह हवा में बहाए लिए चली जाती है।
 
इस "मोटिफ़" का लगभग हूबहू निर्वाह गीत के फ़िल्मांकन में किया गया है, जिसमें किशोर कुमार धुंध के बीच गाते हुए चले जा रहे हैं। गीत की "संगीत-योजना" में "अनुगूंजों" का समावेश किया गया है, जो आपको इस बात का अहसास कराता है कि दूर दिशाओं में आप ऐसे खो गए हैं, जैसे रात के अंधेरे में कहीं कोई सुई बेआवाज़ गिरकर खो जाती है, फिर हज़ार ढूंढ़ने से नहीं मिलती। और सबसे अंत में गीत की पंक्त‍ियों में उस "डिसओरिएंटेशन" के इशारे हैं, जैसे : "जो मुझे राह दिखाए, वही तारा ना रहा" या "क्या बताऊं मैं कहां यूं ही चला जाता हूं" या "ऐ नज़ारो ना हंसो मिल ना सकूंगा तुमसे"। इस अंतिम पंक्त‍ि से तो हमें बरबस अज्ञेय की कविता भी याद आती है : "मैंने आँख भर देखा/दिया मन को दिलासा पुन: आऊँगा/(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)/क्षितिज ने पलक-सी खोली/तमक कर दामिनी बोली- अरे यायावर! रहेगा याद?"
 
यानी कुल-जमा तीन-चार मिनट के इस गीत में तीन स्तरों पर, तीन भिन्न आयामों में "डिसओरिएंटेशन" का निर्वाह है, और फिर चौथा आयाम है, किशोर की आवाज़। यूं ही नहीं, भारतीय दर्शन परंपराओं में चौथे आयाम को सबसे विराट, सबसे महत्, सबसे यशस्वी कहा गया है, "तुरीय" कहकर उसे पुकारा गया है! चौथा वह जिसमें प्रारंभ के तीनों का समावेश हों, ऐसा कहकर एक गहरी काव्यात्मक व्यंजना दी गई है।
 
लिहाज़ा, दीपशिखा की तरह दीप्त, हिमशिखरों सा धवल, चंद्रहास सा पारदर्शी, धनक सा मायावी और कुंदन सा खरा यह किशोर-स्वर है। यह एक विलक्षण "धात्व‍िक गानसंज्ञा" है, कांसे की घंटियों का सा अनुनाद। इस स्वर में पौरुष है कोमलता भी। विषाद है परिहास भी। अनौपचारिकता है अनिर्वचनीयता भी। मिसाल के तौर पर, इसी गीत में सुन लीजिए यह पंक्त‍ि : "तुम मेरे हो ना सके/मैं तुम्हारा ना रहा।" जिसमें किशोर "तुम मेरे हो ना सके" को कितनी रूठी हुई मासूमियत के साथ गाते हैं और फिर "मैं तुम्हारा ना रहा" को कैसी उदास मंदस्म‍ित के साथ, होंठ दबाकर मुस्कराते हुए। एक ही पंक्त‍ि में ये दो चमत्कार कर देना किशोर के ही बूते की बात थी!
 
अभी कुछ दिन पहले हेमंत कुमार के बांग्ला उच्चार के बारे में बात करते हुए कहा था कि उनका स्वर गोलाइयों से भरा है। यह बात मन्ना डे के लिए भी उतनी ही सही है, गीता दत्त के लिए भी। वस्तुत: यह बांग्ला उच्चार के मूल में है कि शब्द ग़ुब्बारों सरीखी स्फीति और वर्तुलों से भरे हों। लेकिन "गांगुली-बंगाली" होने के बावजूद किशोर के यहां एक सधी हुई, सुस्पष्ट, किंचित अनुनासिक स्वर-चेष्टा है। किशोर के आवाज़ के नुक़ूश बहुत तराशे हुए हैं। शायद इसका कारण यह रहा होगा कि किशोर मध्यप्रदेश के खंडवा में जन्मे, पले-बढ़े, इंदौर में उनकी पढ़ाई हुई। इस तरह बंगाली होने के बावजूद बांग्ला उच्चार के स्वाभाविक गुणधर्मों से वे मुक्त रहे थे।
 
किंतु विषाद! "विषण्णता" की एक ही संज्ञा है और वह है किशोर कुमार का गाना। मुझे अचरज है कि "ट्रैजिक सिंगर्स" के ख़िताब हिंदी सिने संगीत ने औरों को सौंपे हैं। जबकि मुकेश के यहां तो "आत्मदैन्य" है, तलत के यहां "निष्कवच कातरता", हेमंत के यहां "आत्ममंथन", रफ़ी के यहां "नाटकीय आलोड़न"। लेकिन किशोर कुमार ने जैसे दु:ख को गाया, वैसे कोई और कभी गा नहीं सका। किशोर का कंठस्वर विषाद का "विग्रह" है। "निर्वेद" उनके भीतर रचा-बसा है। सृष्ट‍ि में निहित अभाव की चेतना से किशोर का गायन आप्लावित है और जब उनकी आवाज़ कोहरों में फैलती है तो ऐसा लगता है, जैसे दुनिया-फ़ानी के ओर-छोर तक, कोनों-अंतरों तक रंज ही रंज है, सोग़ ही सोग़ है, बौद्ध दर्शन का "जीवन दु:खम" है, सूफ़ियों की "शबे-हिज्र" है, ख़्र‍िस्तानियों का "आत्मद्रोह" है। कि यह इस क़ायनात का सबसे हसीन, सबसे दिलक़श ग़म है।
 
अगर ईश्वर मुझसे पूछे कि कोई एक वरदान मांगो तो मैं यही कहू्ंगा कि एक बार किशोर कुमार की तरह यह गीत गाने की वक़अत मिले। तिस पर ईश्वर किंचित अविश्वास से कहेगा, "बस इतनी सी चाह!" और मैं अट्टाहास करके कहूंगा, "तुमने दुनिया बनाई, किशोर यह गाकर तुम्हारी इस दुनिया में व्याप गए हैं। दुनिया बड़ी नहीं होती, उसमें व्यापने वाला बड़ा होता है। आकाश बड़ा नहीं होता, गूंज बड़ी होती है। के वुअसत तख़लीक़ की नहीं होती, ख़लाओं की होती है, पदार्थ की नहीं, शून्य की होती है। जैसे वामन ने तीन डग में नापी थी सृष्ट‍ि, इन तीन मिनटों में किशोर ने नाप लिया है समूचा आकाश। और मुझे भी चाहिए, वैसी ही व्याप्त‍ि, वैसी ही स्फीति, वैसी की वुसअत, वैसा ही फैलाव।"
 
मैं ईश्वर की बोधपूर्ण मुस्कराहट को ध्यान से देखना चाहूंगा तब।
 
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