तुम न जाने किस जहां में खो गए: लता-एसडी का यह गीत रास्ता चलते रुक जाने को मजबूर करता है | गीत गंगा

गुरुवार, 17 अगस्त 2023 (07:02 IST)
फिल्म 'सज़ा' का यह गीत सन् 51 में जारी हुआ था। मगर आज सालों बाद भी यह लता-गीत हिन्दी फिल्म संगीत के संजीदा प्रेमियों को रास्ता चलते रुक जाने को मजबूर करता है और वे सड़क के बगल में खड़े होकर इसे किसी होटल या दुकान के रेडियो पर सुनने लगते हैं। खासतौर पर गहराती रात के वीरान सन्नाटों में यह गीत कान पर पड़ जाए तो... उदासियों के आलम में खींच ले जाता है और हम अगरबत्ती के धुएं-सा बिखरने लगते हैं। यह ताकत एस.डी. बर्मन की धुन और उनके साजों की रहनुमाई की तो है, पर इस गीत को उदासी का जीता-जागता मूड बनाती हैं लता मंगेशकर।
 
इस गीत का चमत्कारिक तत्व है- माहौल/ अफसुर्दगी/ रूह का बुझा-बुझापन/ और उनका आलम तैयार करता हुआ साज-संगीत। 'तुम न जाने किस जहां में खो गए' वाली लाइन के अर्थ पर गौर करते हुए एक भावचित्र बनाइए। आपके जेहन में एक ऐसे शख्स की छाया उभरेगी, जो आपकी ओर पीठ किए हुए, शाम के धुंधलके में, आहिस्ता-आहिस्ता गुमशुदगी की तराई में उतर गया और अपने पीछे उदास हवाओं का वजनदार सन्नाटा छोड़ गया। इसके बाद जैसे कुछ नहीं बचता... बस थरथराता शून्य रह जाता है। बर्मन दा की धुन और वाद्य संगीत, साहिर लुधियानवी के मुखड़े के भावचित्र को बखूबी पकड़ते हैं और हमें पिघलते मोम की उदास ठंडकों में उतार देते हैं।
 
परदे पर यह गीत देवानंद के गम में डूबी मासूम निम्मी पर चित्रित होता है और दृश्य तथा ध्वनि के मेल से ऐसा अनुभव बिम्ब खड़ा करता है, जैसे रात के दर्द का बर्फ मातम की आंच में पिघलता जा रहा हो और किसी के जिस्म का गोश्त हवा में घुलकर हवा हो गया हो। यह जिंदा उदास ठहरा हुआ शून्य ही इस गीत की जान है।
 
इस बाबद हरदे के एक एडवोकेट ताहिर अली की टिप्पणी देखिए- 'इस गीत को सुनकर यूं लगता है, जैसे ढलती रातों की चांदनी बेजार होकर पीली पड़ गई हो और इश्क अपनी चुकी हुई ताकत के साथ शिकस्त की बैसाखियों पर झूल गया हो। इस गीत में तिनका भी सिर नहीं उठाता। जर्रे-जर्रे ने हथियार डाल दिए हैं, हाथ टेक दिए हैं।'
 
कहना यह है कि यह 5वें दशक का संगीत था, जहां 3 मिनट के शाश्वत में एक संसार रचा गया था और जिसे भाषा में बखानने के लिए सफे पर सफे खर्च किए जा सकते थे। बर्मन और लता का यह गीत एक अदना नगमा न होकर खामोश गम का भारी अलाव है, जो चांदनी रात के पत्तों की छांव में कहीं नजर की ओट सिलवा रहा है। लीजिए इबारत पढ़िए-
 
तुम न जाने किस जहां में खो गए,
हम भरी दुनिया में तन्हा हो गए
तुम न जाने...
 
मौत भी आती नहीं, रात भी जाती नहीं
दिल को ये क्या हो गया, कोई शै भाती नहीं,
लूटकर मेरा जहां, छुप गए हो तुम कहां
तुम कहां, तुम कहां, तुम कहां
तुम न जाने...
 
एक जां और लाख ग़म, घुट के रह जाए न दम
आओ तुमको देख लें, डूबती नज़रों से हम,
लूटकर मेरा जहां, छुप गए हो तुम कहां,
तुम कहां, तुम कहां, तुम कहां
तुम न जाने...
 
अगर आपने इस गीत के समूचे अर्थ और मूड को अच्छी तरह समझ लिया है तो बताने की जरूरत नहीं कि बर्मन दा और लता अपना-अपना काम इसीलिए बढ़िया कर सके कि साहिर साहब की शब्द-रचना जोरदार रही है और काव्य खुद दर्द की मेलडी बन गया है। लता की समझ का तो यूं भी जवाब नहीं, क्योंकि उनके पास मन की आंखें इतनी तेज हैं कि गीत का जर्रा-जर्रा उनसे चीखकर कहने लगता है- मुझे यूं गाओ! मुझे यूं शक्ल दो। इसी गीत में जब वे 'तुम कहां, तुम कहां, तुम कहां...' का आर्तनाद करती हैं, तो लगता है, खामोशी की उनींदी आंख में कांटा चुभ गया और अब खुद नींद जैसे सो नहीं सकती।
 
कला में रचा गया यह करुण विलाप- जबकि कलाकार तटस्थ था- जैसे एक घायल, मासूम हिरनी का सारी कायनात के बेहिस चैन पर तीखा एक्यूजेशन है! 'हमें चैन नहीं, तो तुम्हें ये मीठी नींद कैसी।' काश! नई पीढ़ी समझ सके कि इन पिछले गीतों में संवेदनशीलता ने कितनी बेचैन करवटें ली हैं और कांटों के कितने तेज बिछौने पर सोती आई है। क्या खुशबुओं के वे जमाने एक बार फिर इधर रुख कर सकेंगे?
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 1' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)

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