इंसान गुम गए

विवेकरंजन श्रीवास्तव
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दीवाने धर्म के, मय धर्म गुम गए,
मानस भी गुम गई, कुरान गुम गए।

गुजरात में हुआ जो, बुरा बहुत हुआ,
दुश्मन तलाशते रहे, दोस्त गुम गए।

साजिश थी, जुनून था या था जिहाद,
लगा पता है पर, कई पते ही गुम गए।

हमको भी हवा ने कुछ इस तरह छला,
हम भीड़ हो गए, इंसान गुम गए।

जुनूनियों की जिद का असर, बच्चों पे यों हुआ,
कुछ यतीम हो गए, और कुछ गुम गए।

बस्तियाँ बेशक बसा लोगे फिर से,
लाओगे कहाँ से, जो रिश्ते गुम गए।

शब्दों ने अक्षरों ने, भाषा ही बदल ली,
भाव सो गए और गीत गुम गए।