आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है... हरी, न्योतती, कोई आकर रौंदे।
आओ बैठो तनिक और सटकर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।
चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओगे, चाहे चुप रह जाओ... हो प्रकृतस्थ : तनो मत कटी-छंटी उस बाड़ सरीखी, नमो, खुल खिलो, सहज मिलो अंत:स्मित, अंत:संयत हरी घास-सी
क्षणभर भुला सकें हम नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट- और न मानें उसे पलायन, क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली, पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे, फुनगी पर पूंछ उठाकर इतराती छोटी-सी चिडि़या- और न सहसा चोर कह उठे मन में- प्रकृतिवाद है स्खलन क्योंकि युग जनवादी है।
क्षणभर में हम न रहें रहकर भी सुनें गूंज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की जिसकी छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं- जैसी सीपी सदा सुना करती है।
क्षण-भर लय हों- मैं भी, तुम भी, और न सिमटें सोच कि हमने अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना!
क्षण-भर अनायास हम याद करें : तिरती नाव नदी में, धूलभरे पथ पर असाढ़ की भभक, झील में साथ तैरना, हंसी अकारण खड़े महावट की छाया में, वदन घाम से लाल, स्वेद से जमी अलक-लट, चीड़ों का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़े, गीली हवा नदी की, फूले नथुने, भराई सीटी स्टीमर की, खंडहर, ग्रसित अंगुलियां, बांसे का मधु, डाकिए के पैरों की चाप, अधजानी बबूल की धूल मिली-सी गंध, झरा रेशम शिरीष का, कविता के पद, मसजिद के गुंबद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे, झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुंघरूं, संथाली झुमूर का लंबा कसकभरा आलाप, रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें, आंधी-पानी, नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छांह झाड़ की अंगुल-अंगुल नाप-नापकर तोड़े तिनकों का समूह, लू, मौन।
याद कर सकें अनायास : और न मानें हम अतीत के शरणाथीं हैं; स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन- हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से। आओ बैठो : क्षण-भर : यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैयाजी से। हमें मिला है अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा।
आओ बैठो : क्षण-भर तुम्हें निहारूं। अपनी जानी एक-एक रेखा पहचानूं चेहरे की, आंखों की-अंतर्मन की और-हमारी साझे की अनगिन स्मृतियों की : तुम्हें निहारूं, झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है!
धीरे-धीरे धुंधले में चेहरे की रेखाएं मिट जाएं- केवल नेत्र जगें : उतनी ही धीरे हरी घास की पत्ती-पत्ती भी मिट जाए लिपट झाडि़यों के पैरों में और झाडि़यां भी धुल जाएं क्षिति-रेखा के मसृण ध्वांत में, केवल बना रहे विस्तार- हमारा बोध मुक्ति का, सीमाहीन खुलेपन का ही।
चलो, उठें अब, अब तक हम थे बंधु सैर को आए... (देखें हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?) और रहे बैठे तो लोग कहेंगे धुंधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।
...वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने : (जिसके खुले निमंत्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है और वह नहीं बोली), नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से जिनकी भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की किंतु नहीं करुणा।