हिन्दी कविता : मन की गांठ

मन की गांठ 
बोई नहीं जाती
ग्लैडुला की गांठ की तरह
जो अपनी बगिया महकाए
भाए आंखों को
 
मन की गांठ
बांधी नहीं जाती
बंधनी की गांठ की तरह
जो अपना धरातल सजाए
ओढ़नी ओढ़ाए नातों को
 
मन की गांठ
लाई नहीं जाती
प्याज की गांठ की तरह
जो परत-दर-परत खुलती जाए
बढ़ाए रसोई के स्वादों को
 
मन की गांठ
लग जाती है 
कर्कटी गांठ की तरह
दुखती, चुभती फैलती जाए
टाल दो कर प्रेमयुक्त संवादों को। 
 

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