कविता : किसे कहते हैं इमारत ?

ईंटा, रेत, सीमेंट और लोहे के
सम्मिश्रण से बने 
बहुमंजिला भवन को ही 
कहते हैं न हम इमारत !
जिसे बनाता है मानव।
 
जी हां, यही है इमारत
जो देती है मान, सम्मान और पैसा
बनाती है वैभवशाली 
मालिक को अपने।
 
ऐतिहासिक और धरोहर भी
होती हैं ये इमारतें।
इनके रंग-रोगन और रख-रखाव का
रखा जाता है पूरा-पूरा ध्यान भी।
 
पर इससे इतर एक इमारत 
होती है और भी
जिसकी रचना करते हैं -
स्वयं करुणानिधान 
स्त्री और पुरुष के मेल से।
 
यही वह शाश्वत इमारत है
जहां से चलता है 
जीवन-मरण का विधान 
सृष्टि के रहने तक।
 
जरूरी है इस इमारत का भी
समय-समय पर 
रंग-रोगन और रख-रखाव
जो होता है हमारे गुण-अवगुण से।
 
ये गुण-अवगुण ही करते हैं तय
इस इमारत का वो मूल्य 
जिससे बनती-बिगड़ती है
जिंदगी हमारी और 
देना पड़ता है फिर हिसाब
जन्म-जन्मांतर तक 
कहलाता है जो प्रारब्ध हमारा।
 
समझें इसे और करें अपनी
ईश्वर प्रदत्त इमारत का 
सद्कर्म और सद्गुणों से
रख-रखाव, ताकि
महफूज और सुवासि‍त हो सके
जीवन हमारा कई-कई जन्मों तक।

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