शरद पूर्णिमा पर कविता : बहकता शरद
डॉ. निशा माथुर
महक महक मालती-सा, हिचकोले जिया
कनखियों से देखे, हौले-हौले बोले पिया
चंचल चुलबुली चांदनी, आई मेरे आंगन
प्रिय! बहकते शरद ने, यूं मादक किया
सुरभित सेवंती, मौन-मौन महका दिया
कातिक रात है, बावरा मन मुस्का दिया
रूप दर्पण में संवारु, उम्र का बांकपन
हंसनी सा उड़े, कमसिन खुनके हिया
बटोही-सी ठहरी, भोर ने शुभागम दिया
खिसकती दोपहरी ने भी, अनमना किया
हंसती धुंध लपेटे है, कस कर सनन सन
शिरा शिरा तड़के है, यूं धड़के है जिया
मलय समीर ने ठिठुरन, कंपकपा दिया
पुष्प पल्लवित सुरभि, ने गहमा किया
पांव भारी शरद के, चंचल ठुनक ठुन
ऋतुओं की ऋचा, कैसे भड़के है हिया
देह-देह सिहरात, मधुमास इठलाए हिया
उड़ी अलकें कांधे पे, झुमका बोले पिया
पलकें खोले हौले-हौले ,पांखुरी अनमन
शरद की चांद खुमारी, महके है जिया
चंचल चुलबुली चांदनी आई मेरे आंगन
प्रिय! बहकते शरद ने यूं मादक किया