कविता : क्या होता जो गम न होता ?
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?
सच पूछो तब हंसने का भी मौसम न होता।
कांटों की जो सेज न होती, फूल कहां पर सोते?
जो ये काली रात न होती, ओंस कहां पिरोते?
सुबह सूर्य के दर्शन कर फिर क्यों इतना इतराते?
इतना खिला-खिला तब कोई उपवन न होता।
सच पूछो तब हंसने का भी मौसम न होता,
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?
प्यास से न कंठ तरसते पानी अमृत क्यों बनता?
चिलचिलाती धूप न होती, बादल क्यों बरसता?
गरज-बरसकर जो धरती से अंबर न मिलता,
हरा-भरा धरती पर इतना जीवन न होता।
सच पूछो तब हंसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?
विरह का जो दर्द न होता मिलना किसको कहते?
रातों की जो नींद न उड़ती थककर कैसे सोते?
सुनहरे सपनों को तब किसके नयन पिरोते?
नित नूतन तब मानव का मन न होता।
सच पूछो तब हंसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?
देखी जो हार न होती जीत खुशी न देती,
सुख के आंसू कैसे सहती, जो आंख कभी न रोती।
खुद न जलती लौ तो फिर तम कैसे हर लेती?
रात न होती, दिन भी इतना उज्ज्वल न होता।
सच पूछो तब हंसने का भी मौसम न होता।
क्या होता जो इस दुनिया में गम न होता?