कविता: ओ स्वप्न मेरे

अंत:करण में स्थित
तुम्हारे बिम्ब को छूती
सुनहली खुली धूप 
निर्विकल्प उजाले-सी।
 
फूलों-सी अवगुंठित 
मुस्कानभरी खिलखिलाहट
गूंजती है झरनों में
गीत की लहर-सी।
 
तुम्हें देखा है महसूसा है
जीवनानुभूति-सा।
 
अविकल्प स्मृति में
तुम्हें जिया है
सांसों के स्पंदन में 
तुम्हें पिया है।
 
स्वाति बूंद-सा
चातक-सा निहारा है तुम्हें
चांद के संवेदन में।
 
हर दर्द हर आघात, प्रतिघात में 
मेरा स्तब्ध मानस
भटका है तुम्हारी स्मृतियों में।
 
अरे तुम तो कभी थे न मेरे
फिर भी स्वप्न तो थे सुनहरे।
 
अविराम मिटता ही चला हूं 
निर्मम निर्निमेष हर पल छला हूं। 

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