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हिन्दी कविता : काली स्याह रात
-दिलीप गोविलकर
कहीं दूर अंधेरे में कर्कश चीत्कार
झुंड में जंगली कुत्ते
और एक हिरणी
डरी-सहमी
अपने बदन को सिकोड़े
प्राणों की भीख को तरसती।
दरिंदे कुत्ते पल भर में
निरीह अबला को नोचने को आतुर
समूचा जंगल वीभत्सता के
नंगे नाच का एकमात्र मूकदर्शक।
एक पल में सन्नाटा...
ठीक वैसे ही
जैसे धृतराष्ट्र की भरी सभा
सभासदों का अट्टहास
और द्रौपदी की चीख....
बारंबार दृश्य दोहराता
सुसंस्कृत समाज का विकृत रूप
और बेबस लाचार अबला।
विलंब क्यों है 'या भीम में अब वह बल नहीं'
जो दुःशासन की छाती के लहू से
पुनः द्रौपदी के केश धो सके।
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