मैथिलीशरण गुप्त की कालजयी रचना

तीन अगस्त, मैथिलीशरण गुप्त की जयंती है। इस अवसर पर महान साहित्यकार श्री गुप्त की कालजयी रचना उर्मिला के कुछ अंश प्रस्तुत हैं। उर्मिला, एक पौराणिक चरित्र है। भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण की पत्नी।

संपूर्ण रामायण में राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के त्याग का वर्णन मिलता है लेकिन उर्मिला के लिए बहुत कम पंक्तियाँ रची गई है जबकि उसका त्याग भी विलक्षण है। पति लक्ष्मण भाई राम के साथ वनवास चले गए तब 14 वर्ष उसने विरह की अग्नि में जलकर बिताए। गुप्त जी ने उस दर्द को महसूस करते हुए अपनी कल्पनाशीलता से यह मार्मिक रचना लिखी। 
 
उर्मिला : प्रथम सर्ग
संसार-रंगस्थल-सूत्रधारं,
साकार सर्वेश्वर निर्विकार।
भू-भार-हारी प्रभु पूर्ण काम-
श्रीराम हे शिरसा प्रणाम।।

अलभ्य है अन्य चरित्र ऐसा,
देखा यही धन्य पवित्र ऐसा।
गम्भीर भी उन्नत दोष-हीन,
प्राचीन भी होकर है नवीन।।

पद्मस्थ पद्मैव शुभासनस्था,
अपूर्व सी है जिस की अवस्था।
प्रत्यक्ष देवी सम दीप्ति-माला,
प्रासाद में है यह कौन बाला।।

सौन्दर्य से देह-लता झुकी है,
गई जहाँ दृष्टि वहीं रुकी है।
लटें कपोलों पर तीन चार-
बढ़ा रही हैं सुषमा अपार।।

उमंग से पूरित अंग अंग,
दिखा रहे एक नवीन रंग।
बना रहे भूष्य विभूषणों को-
लजा रहे जो बहु पूषणों को।।

रखे हुए चित्रपटी समक्ष,
किये हुए निश्चल पूर्ण लक्ष।
बना रही है यह चारु चित्र,
दिखा रही कौशल है विचित्र।।


बैठी कई हैं सखियाँ समीप,
अलोल हैं लोचन रूप-दीप।
प्रासाद भी नीरव शान्तिधारी,
क्या देखता है वह चित्रकारी ?

महाव्रती लक्ष्मण की सुवामा,
पवित्रता की प्रतिमा ललामा।
प्रपूर्णकामा यह ‘उर्मिला’ है,
सुयोग क्या ही क्षिति को मिला है !

श्री राम होंगे युवराज आज,
विलोकने को उनका समाज।
अधीर हो के यह पूर्व से ही,
बना रही चित्र पवित्र देही।।

हैं चित्र मानो सब के सजीव,
बातें सभी अद्भुत हैं अतीव।
गए दिखाए सब दृश्य ऐसे-
आदर्श में हों प्रतिबिम्ब जैसे !

लगी हुई एक बड़ी सभा है,
फैली सभी ओर महाप्रभा है।
मध्यस्थ सिंहासन राम का है,
सुदृश्य मानो सुरधाम का है।।

पूरा हुआ है सब काम और,
हुए सभी चित्रित ठौर-ठौर।
श्रीराम की पार्श्व-विभाग-पूर्ति-
बनी अभी लक्ष्मण की न मूर्ति।।

प्राणेश को राघव के समीप
तमाल के पास प्रफुल्ल नीप
लगी बनाने वह देवी ज्यों ही
होने लगे सात्विक भाव त्यों ही।।

पूरा हुआ चित्र न रूप-सद्म,
होने लगे कम्पित प्राणी-पद्म।
रुकी न रोके मन की उमंग
चेष्टा हुई व्यर्थ बहा सुरंग।।

विलोक के रंग अहा ! बहा यों,
सहेलियों ने हँस के कहा यों-
‘‘देखी तुम्हारी बस चित्रकारी,
छोडो, चलो, चित्रपाटी हमारी !’

सहेलियों की सुन प्रेम-भाषा,
बोली सलज्जा वह साभिलाषा।
‘फैला अहो ! क्या यह केश-रंग,
मिला तुम्हें व्यंग्य-गिरा-प्रसंग !’

‘है आज तो जात बनी बनाई,
पूरी तुम्हारी बन आज आई।
तुम्हीं बना लो यह चित्र पूरा,
मेरा यहाँ कौशल है अधूरा !’’

‘होता नहीं कार्य बिना निमित्त,
मैं क्या करूँ, है बस में बस में न चित्त।
साकेत1 में हैं चितचोर जैसे-
देख कहीं और सुने न वैसे।

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