कविता: शायद तुम लौट आओ

अनिल उपहार
 
 
मन का मरुस्थली सन्नाटा तोड़ती 
तुम्हारी यादें घोल देती थी 
देह की हर दस्तक में मिठास 
पलकों पर सजे सिंदूरी स्वप्न 
बार बार देते निमंत्रण, मन देहरी पर
भावनाओं के अक्षत चढ़ाने को 

संस्कारों की सड़क के मुसाफिर-सा
तुम्हारा बेखौफ चलना 
तहजीब की ग्रंथावली के 
कोमल किरदार को सलीके से निभाना 
पढ़ा देना बातों ही बातों में  मर्यादा का पाठ
विरदा वलियों का संवाद 
जिसने रिश्तों के रंग मंच पर 
अपना अभिनय बखूबी करना सिखाया 
अचानक
वक्त की आई तेज आंधी ने 
सब कुछ बिखेर कर रख दिया 
और धूल धुसरित कर दिया उन सभी रिश्तों को ,
जिनकी छांव में हमने 
जीवन के सतरंगी सपनों को बुना था 
कहने को अब नहीं हो साथ मेरे
पर आज भी अहसास जिंदा है 
मन के किसी कोने में 
तुम्हारा शांत नदी सा बहना 
लहरों-सा अठखेलियां करना 
और अचानक छोड़ कर चल देना 
 
मेरे गीत और छंद सूने हैं, तुम्हारे बगैर 
फिर भी विश्वास है कि तुम लौट आओगे 
और अधरों पर गीत बन बिखेर दोगे 
अपने माधुर्य की ताजगी 
मैं अपने गीत और छंद तुम्हारे नाम करता हूं 
श्रद्धा की पावन प्रतिमा 
मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं ।

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