कविता : सांझ ढले कैसा लगता

प्रीति सोनी 
सांझ ढले कैसा लगता है , 
मन मुस्काता सा लगता है 
चादर ओढ़े लालिमा की 
दिन उसके रंग में रंगता है 
 
शाम सुहानी शांत सुरीली, मधुर बांसुरी तान लगता है 
पथि‍क का रस्ता देखता आंगन, सूना पड़ा मकान लगता है 
 

 
लौटते पंक्षी अपने घरौंदे, बसता हुआ वो घर लगता है 
चहल-पहल की खनक से भरा, आशियाना हर इक दर लगता है 
 
दीप‍क की रौशन श्रद्धा और 
अगरबत्ती की महक से सजा 
आरती अजान लोबान से रचा 
श्रृंगारित सा पल लगता है 
 
सांझ ढले कैसा लगता है 
मन मुस्काता सा लगता है 

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