कविता : आंखों के आंसू

संजय वर्मा "दॄष्टि"
 
बेटी के ससुराल में, पिता के आने की खबर 
बेसब्री तोड़ देती बेटी की, आंखे निहारती राहों को 
देर होने पर, छलकने लगते आंसू 
 
दहलीज पर आवाज लगाती 
पिता की आवाज- बेटी
रिश्तों, काम काज को छोड़ 
पग हिरणी-सी चाल बने
ऐसी निर्मल हवा 
सुखा देती आंखों के आंसू 
लिपट पड़ती अपने पिता से
रोता-हंसता चेहरा बोल उठता 
पापा इतनी देर कैसे हो गई
 
समय रिश्तों के पंख लगा उड़ने लगा 
मगर यादें वही रुकी रही 
मानो कह रही हो 
अब न आ सकूंगा मेरी बेटी
 
मगर अब भी आंखे निहारती राहों को 
याद आने पर, छलकने लगते आंसू 
दहलीज पर आवाज लगाती 
पिता की आवाज -बेटी 
अब न आ सकी
 
पिता की राह निहारने के बजाए
आकाश के तारों में ढूढ़ रही पापा 
कहते हैं की लोग मरने के बाद 
बन जाते है तारे 
 
आंसू ढुलक पड़ते रोज गालों पर 
और सुख जाते अपने आप 
क्योकि निर्मल हवा कभी 
सूखा देती थी आंखों के आंसू 
जो अब है थमे 
 

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