कविता : कुछ पत्थर चुप जैसे

राजकुमार कुम्भज
कुछ पत्थर चुप जैसे
कुछ पत्थर बोलना चाहते हैं
किंतु करें क्या, करें क्या
 
कि नहीं है, नहीं है
जरा भी बोलने की जरा भी इजाजत
इजाजत जो होती बोलने की
तो बोलते सबके हिस्से का सब सच खरा-खरा
और शायद यह भी
कि सूरज-चांद बरोबर
और फिर भी अंधेरा बरोबर
कि मृत्यु का पावर हाउस बरााबर
और फिर भी जीवन बरोबर
कि कवि का होना-चाहना बराबर
और फिर भी चुप्पी बराबर
 
ठीक-ठीक देखो तो
सच की तुतलाहट ही हर कहीं
तुतलाहट का अनुवाद नहीं
बकरियों, मेमनों, मुर्गियों की
प्राणघातक चीखें ही चीखें चतुर्दिक
पक्षियों में पक्षियों की चहचहाहट है बड़ी
 
कुछ पत्थर बोलना चाहते हैं
कुछ पत्थर चुप जैसे।

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