विपदाओं से मुक्ति दिलाती कविता : हे नरसिंह, तुम आ जाओ...

नृसिंहों की बस्ती में,
दानवता क्यों नाच रही।
मानवता डरकर क्यों,
एक उंगली पर नाच रही।
 
भारत की इस भूमि को, 
क्यों अब शत्रु आंख दिखाते हैं।
अपने ही क्यों अब अपनों,
की पीठ में छुरा घुपाते हैं।
 
नृसिंहों की इस भूमि को,
क्यों लकवा लग जाता है।
क्यों शत्रु शहीद का सिर,
काट हम को मुंह चिढ़ाता है।
 
क्यों अध्यापक सड़कों पर,
मारा-मारा फिरता है।
क्यों अब हर कोई अपने,
साये से ही डरता है।
 
आरक्षण की बैसाखी पर,
क्यों सरकारें चलती हैं।
क्यों प्रतिभाएं कुंठित होकर,
पंखे से लटकती हैं।
 
नक्सलियों के पैरोकार,
कहां बंद हो जाते हैं।
वीर जवानों की लाशों पर,
क्यों स्वर मंद हो जाते हैं।
 
क्यों अबलाओं की चीखों,
को कान तुम्हारे नहीं सुनते।
क्यों मजदूरों की रोटी पर,
तुम वोटों के सपने बुनते।
 
शिक्षा को व्यवसाय बना,
कर लूट रहे चौराहों पर।
आम आदमी आज खड़ा है,
दूर विकास की राहों पर।
 
साहित्यों के सम्मानों का,
आज यहां बाजार बड़ा।
टूटे-फूटे मिसरे लिख,
कर गजलकार तैयार खड़ा।
 
तीन तलाक की बर्बादी का,
कौन है जिम्मेदार यहां।
मासूमों की इज्जत का,
कौन है पहरेदार यहां।
 
हे नरसिंह, तुम अब आ जाओ,
इन विपदाओं से मुक्त करो।
भारत की इस पुण्यभूमि,
को अभयदान से युक्त करो।
 

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