हिन्दी कविता : परिपक्वता...

कुंडलियां
 
 
अंतर हृदय परिपक्वता,
मन में प्रेम बढ़ाय।
नीरस मन रस से भरे,
जनम सफल हो जाय।
 
जनम सफल हो जाय,
दुख नहीं मन में झांके।
प्रेम सुमन खिल जाय,
शत्रुता दूर से तांकें।
 
कह सुशील कविराय,
प्रेम का मारो मंतर।
सरल हृदय हो जाय,
कलुष है जिसके अंतर।
 
मानव मन अपरिपक्व है,
इधर-उधर लग जाय।
मन को जो बस में करे,
वह महान कहलाय।
 
वह महान कहलाय,
जानिए उसको समुचित।
वह मानव गंभीर,
सद्गुणों से वह सिंचित।
 
कह सुशील कविराय,
सुखी है वह मानव तन।
सदा परिपक्व दिखाय,
श्रेष्ठ अति वह मानव मन।
 

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