सूर्य हुआ अस्त है, लुटेरा हुआ मस्त है
साहित्यकार आज यश भारती में व्यस्त है
देश और प्रदेश में लुट रहा इंसान है
न्याय है रो रहा, चीखता हर विद्वान है
त्राहि-त्राहि मच रही हर नगर हर गली
मगर साहित्यकार को इससे है क्या पड़ी
कवि नजरबंद है और लेखनी उदास है
भारत धरा की जनता अब तो उदास है
सृजन भी आज उदास है और गमगीन है
क्योंकि कवि, कविधर्म छोड़कर
चाटुकारिता में तल्लीन है
ऐसे वह लोकधर्म कैसे निभा पाएगा
या केवल सत्ता का प्रवक्ता वह कहलाएगा
कवि नजरबंद है और लेखनी निराश है।